साहित्य विवेचन | Sahitya Vivechan

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Sahitya Vivechan by आचार्य नंददुलारे वाजपेयी - acharya nanddulare vajpayi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ठ साहित्य-विवेचन माथा नवाकर चल रहे थे श्रौर चले जा सकते थे । परन्तु हमने न जाने क्यों वह रास्ता पसन्द नहीं किया भर दौड़ पड़े एक दूसरी ही पगडंडी की श्रोर । आज हिन्दी-साहित्य के इस प्रगतिवादी सम्प्रदाय में जो कलह श्रौर कशमकश चल रही हे उसका मुख्य कारण एक पतली लोक में बहुत से झ्रादमियों का ्राकर रास्ता पाने की चेष्टा करना है । हमे रवीन्द्र श्र प्रसाद शरच्चन्द्र और प्रेमचंद की साहित्यिक परम्परा को अर शुक्ल-शेली की समीक्षा को नवीन परिस्थितियों के अ्रसुरूप भ्रागे बढ़ाना है । हम किसी भी नए मतवाद या ज्ञान-द्वार की झवहेलना नहीं करते परन्तु किसी को आँख सेंदकर भुवित-मार्ग सान लेने के भी हम पक्षपाती नहीं हू । निश्चय ही हमारी यह प्रतिक्रिया हिन्दी-साहित्य के अन्तर्गत चलने वाले प्रगतिवादी श्रान्दोलन के प्रति है । रचनात्मक क्षेत्र में प्रसाद निराला प्रेमचंद अथवा पंत को भी तुलना के साहित्यिक को हम श्राज भी प्रतीक्षा कर रहे है। जो प्रतिभाएं श्रौर व्यक्तित्व स्वाभाविक रूप से इनके परचात्‌ आ्राए वे भी कदाचित्‌ प्रगतिवाद के अ्तिदाय बौद्धिक प्रभावों श्र समीक्षा की असन्तुलित गतिविधियों के कारण दिग्ब्रान्त हो गए हे । हम यह नहीं कहते कि हमारा साहित्य पिछले वर्षों में श्रागे नहीं बढ़ा पर हमारा श्रनुमान हैं कि उसे जितना श्रागे बढ़ना चाहिए था उतना नहीं बढ़ा । हम यह भी नहीं कहते कि प्रगतिवादी समीक्षा ने हिन्दी को कुछ दिया हो नहीं । उसने दो वस्तुएं मुख्य रूप से दी ह। प्रथम यह कि काव्य-साहित्य का सम्बन्ध सामाजिक वास्तविकता से है शभ्रौर वही साहित्य मूल्यबान है. जो उक्त बास्त- विकता के प्रति सजग श्रौर संवेदनशील है । द्वितीय यह कि जो साहित्य सामा- जिक वास्तविकता से जितना ही दूर होगा वह उतना ही काल्पनिक श्रौर प्रति- क्रियावादी कहा जायगा । न केवल सामाजिक दृष्टि से वह भ्रनुपयोगी होगा साहित्यिक दुष्टि से भी हीन श्रौर ह्लासोन्मुख होगा। इस प्रकार साहित्य के सौष्ठव- सम्बन्धी एक नई भापरेखा श्रौर एक नया दृष्टिकोण इस पद्धति ने हमें दिया है जिसका उचित उपयोग हम करेंगे । एक तीसरी समीक्षा-इेली भी जिसका उल्लेख विदेषणात्मक या मनो- विज्ञानिक दोली के नाम से हम ऊपर कर झ्राए हे हिन्दी में प्रचलित हो रही है । इसका सूलवर्तों मन्तव्य यह है कि साहित्य की सृष्टि व्यक्ति की बाह्य या सामा- जिक चेतना के श्राधार पर उतनी नहीं होती जितनी उसकी शभ्रव्यक्त या श्रंतरंग चेतना के ऑ्राधार पर होती है । इस झ्ंतरंग चेतना का दिश्लेषणण प्रसिद्ध मनोवि लेषक सिंगमंड फ्रायड ने एक विशेष मतवाद के रूप में किया है । यद्यपि




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