मन्थरज्वर - चिकित्सा | MantharJvar Chikitsaa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| है. | र्लोकों का उह्ल्लेख अवश्य आया है परन्तु उसका भावाथ हिन्दी- भाषा में कर दिया गया है । प्राचीन अयुव दीय ग्रन्थों में अवाचीन प्रचलित व्याधियों का वण न प्रायः मिलता हो नहीं । हाँ नवीन ग्रन्थ म० म० कविराज श्रीगणनाथ सेन सरस्वती - कृत सिद्धान्तनिदान दि में अवश्य कछ विवेचन मिलता है तथापि हिन्दी में ऐसे ग्रन्थों का अभाव ही है । मेरी इच्छा शाज से श्राट वर्ष पूव अ्रायुवद के संदिग्ध रोगों पर छोटी-छोटी पुस्तिकाए लिखने की थी व्यौर विषृत्चिका-विवेचन नामक पुस्तक की रचना भी की थी जो अनेक कारणवश अभी तक अप्रकाशित हैं । मन्थरज्वर की अनुभूत चिकित्सा नामक पुस्तक स्वामी हरिशरणानन्दजी वेद्य महोदय ने भी लिखी है जिसका अधिकांश भाग केवल कीटाणुवाद के सम नमात्र में और ग्रप्रासंगिक विषय को बढ़ाकर समाप्त हुआ है । घन्वन्तरि पत्र के विशेषांक में अवश्य अनेक चबिद्वानों की चिकित्सा मन्धरज्वर पर संश्िप्त रूप से पड़ने में आई । मैंने भी सन्‌ १६३४ में राकेश के सिद्धोपचार-पद्धति-नामक चविशेषाड़ में सन्थरज्वर- डन्ए चिकित्सा -शापक लेख लिखा । प्रस्तुत पुस्तक में इसी लेख द्वारा उद्छत रोगी-रजिस्टर के उदाहरण संकलित किये हैं जिससें चार नवीन रोगियों के उदाहरण अर सम्मिलित हैं । श्राय-क्रषियों का तपोवन भारतवष शआरोग्य और आत्म- बल के लिए विश्वविख्यात था । कहा भी है-- ब्रह्मचयंण॒ तपसा देवा खृत्युमुपाध्नत । वधवंघेद ] न्रह्मचयं सधा तप से देवताओं ने खत्यु को पराजित किया था । किन्तु पराघीन भारत आज पाश्चात्य कृत्रिम व्याघियों का केन्द्र बन गया हैं | इसका प्रधान कारण है हमारी अकमेण्यता और झआयुवदीय झआरोग्यरक्षक दिनचयाँ रात्रिचयाँ ऋतुचर्यादि




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