संत तुकराम | Sant Tukaram

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Sant Tukaram by हरि रामचंद्र दिवेकर - Hari Ramchandra Divekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१८ ] सत तुकाराम के पदाड़ हैं । इद्रायणी पूरब की आ्रोर बहती जाती है पर देहू के पास काशी जी की गग। सी बह उत्तरवाहिनी हो जाती है । पदरपुर में श्रीविइल इंट पर श्रकेले ही खडे हैं । वहाँ उन के पास रखुमाई की मूर्ति नहीं । रखुमा माता का मदिर वहाँ निराला है। पर देह में विडल और रखुमा बाई।की मूर्तियाँ पास-पास ही बिराज रही हैं । ये मूर्तियों ठुकाराम महा- राज के आठवें पूर्व ज विश्व मर बाबाजी के हाथ से स्थापित हुई हैं । मदिर उत्तरामिमुख है सामने गयड़ जी हैं । हनूमान मी पास में हैं । पूर्व की ओर विज्नराज विनायक हैं श्रौर एक मैरवनाथ का भी स्थान है। दक्षिण में दरेसचर का मदिर उस के पीछे बल्लालबन और बहाँ पर निद्वेश्वर का देवालय श्र उसी के पास श्रीलदमीनारायण के ऐसे दो देवालय श्र हैं । ये सब देव-स्थान तुकाराम के जन्म से पूर्व के ही हैं | ठुकाराम के एक झभग में इन सबों का इसी प्रकार से वर्णन है । तुकाराम के कारण देहू प्रसिद्ध हो जाने पर नदी के तीर पर एक पुडलीक का भी मदिर शव बन गया है । इद्रायणी यहाँ से मील डेड मील तक बडी गहरी है। इसी स्थान पर तुकाराम श्रकेले श्रा कर ईश्वर-मजन करने बैठते थे । जब तुकाराम की हस्तलिखित कविताओओ के कागज इद्रायणी मे डुबोए गए तब यहीं नदी के किनारे एक बड़ी शिला पर तुकाराम तेरह दिन तक सुख में पानी की बू द भी न डालें पढ़े रहे थे । इसी शिला पर उन्हे ईश्वर का साक्षात्कार हुआ था आर उन की कविता के ड्बाए हुए बस्ते तेरइवे दिन नदी मे फूल कर तैरने लगे थे । भगवान्‌ बुद्ध के चरित्र में जिस बोधि- बच्त के नीचे उन्हे निर्वाण-जान प्राप्त हुआ उस का जो महत्व है तुकाराम के चरित्र में इस शिला का भी वहीं महत्व है । तुकाराम के भक्तों द्वारा यह शिला झ्रब देहू के विज मदिर में लाई गई है श्रौर तुकाराम की ज्येष्ठ पत्नी के नाम से तुलसी जो बृ दावन मंदिर में है उसी के पास वह अब रक्‍्खी गई है । मदिर के पश्चिम सें ठुकाराम का मकान है । निस कमरे में तुकाराम का जन्म हुआ वहाँ झब भक्तों ने एक नई विद्ल-मूर्ति की स्थापना की है। इस बणुन से पाठक श्रपनी दृष्टि के सामने देहू का चित्र खीच सकेंगे | देहू गॉव की बस्ती प्रायः मराठा कुनबी लोगों की है। ये लोग जाति के शूद्ध होते हैं । इन मे से बहुतेरे खेती बारी करते हैं । पर कुछ थोड़े व्यापार भी करते हैं । महाराष्ट्र के इन छोटे-छोटे गाँवों में कुछ-कुछ काम बश-परपरा से चलते हैं। इन्ही कामों में से महाजन का एक काम है। बाजार में बेचनेवाले श्रोर खरीदनेवाले दोनों से मद्दा जन का संबघ आता है। बेचनेवाले के पास माल या खरीदनेवाले के पास रुपया काफी न हो तो इस मद्दाजन की अमानत पर व्यवहार किया जाता है श्ौर दोनो आओर से इसे नियमित फ़ी सदी कमीशन मिलता है। देहू गाँव की सहाजनी तठुकाराम के कुल में थी। इस के सिंवाय तुकाराम के पूर्वजों की कुछ॒खेती-बारी एक-दो बाडे श्रौर थोड़ी-सी साहूकारी भी थी। थोड़ा-सा व्यापार भी इन के यहाँ होता था | साराश तुकाराम का कुल देहू के प्रतिष्ठित लगो में माना जाता था । ब्राझमण-जाति के न होने के कारण इन्हें यद्यपि वेदाध्ययन का अधिकार न था तथापि पुराणादि अथों का ज्ञान तथा महाराष्ट्र भर में उस समय की प्रचलित विडल-भक्ति और पंढदरपुर की वारी इस कुल में चली आई थी |




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