वैदिक उपासना | Vaidik Upasana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रकृति-प्रकृति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि एक अजा है जो श्रिगुणात्मक और अपने ही रूप वाली प्रजा को जनम देती है इसमें एक अजा प्रीति या परितृप्ति के साथ शयन करती है और अन्य अज इसमें भोगों को भोग कर इसे छोड देता है। अजा शब्द का अर्थ प्रकृति ही है। यहां प्रकृति को अनादि और त्रिगुणात्मक माना गया है। तैत्तिरीयारण्यक में एक स्थान पर कहा है-असत्‌ ही पहले था उससे सत्‌ पैदा हुआ। यहा असत्‌ शब्द से जगत्‌ के कारण की अव्यक्तावस्था और सदु शब्द से व्यक्त अवस्था अर्थात्‌ कार्य जगत विवक्षित है। इस प्रकार तैत्तियारण्यक में ईश्वर जीवात्मा प्रकृति और कारण-कार्यादि दार्शनिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ विद्यमान हैं । जिनका विस्तृत विवेचन उपनिषदों में हुआ है। उपनिषदों में दार्शनिक चिन्तन उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय-उपनिपदू साहित्य का निःसन्देह +द ब्रास्पण ग्रम्थ और आरण्यक ग्रन्थों के उपरान्त सृजन हुआ | क्योंकि उपनिषदों में वेद के मन्त्रों को सरल रीति के कथानकों के माध्यम से वतलाया गया है अतः उनमें वेदेतर सिद्धान्तों का प्रतिपादन मानना युक्तिसंगत नहीं है। वेद ब्राह्मण और आरण्य स्पष्टत्तया ईश्वर जीव और प्रकृति इन तीन तत्वों का विवेचन करते हुए त्रैत्रवादी सिद्धान्त की स्थापना करते हैं पुनः उपनिषदों में इनके विरोधी मतों का स्थान ही नहीं रह जाता। परन्तु कतिपय मध्यमकालीन दार्शनिकों ने उपनिपदों में अद्वैतवाद विशिष्टादड्रतवाट ड्रैतवाद आदि की पारस्परिक विरोधपूर्ण विचारधास को स्वीकार किया है। कालान्तर में इन्ही मतों को लेकर विभिन्‍न विचारकों ने अपने-अपने सिंद्धान्तों को पल्लवित करके उन्हे स्वतन्न रूप से प्रतिष्ठित किया है। इसी संदर्भ में डॉ. सुधीर कुमार गुप्त का कथन है--संभवतः दैतचाद ही ऋषियों को अभिप्रेत है जिसकी द्ृप्टिगेद से दवैत और अद्वत से अभिव्यक्ति की गई है । उमश मिश्र का मत हैं-किसी विशेष शास्त्र के समाम तत्व के विचारों का वर्गीकरण उपनिपद में नहीं है इसलिए उपनिपद्‌ का कोई भिन्न अपना दर्शन नहीं है। एच. एम. हिरयिना कहते हैं-आज का जिज्ञासु वेदान्त क किसी सम्प्रदाय विशेष का अनुसरण करने के लिए पहले से वचनबद्ध नहीं है ओर इसलिए उसे यह मानने को विवश होना पड़ता है कि उपनिषदों में दो तीन महीं बल्कि अनेक परस्पर विरोधी सिद्धान्त हैं । महर्षि दयामन्द उपभिषषों में ईश्वर जीव और प्रकृत्ति तीनों को भिन्न तथा अनादिं मानते हैं । ऊतः उपनिषदीं में निःसन्देह जैतवाद का विशिष्ट अस्तित्व है। इसके अतिरिक्त उपनिषदों में कतिपय अन्य दार्शनिक सन्दर्भ भी विद्यमान हैं जो पड़ुदर्शनों में पूर्णिया पल्सवित हुए हैं। 18 / बैदिक्र उपासना




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