लोक विज्ञान ( जैन भूगोल - खगोल ) | Lok Vigyan (Jain Bhugol - Khagol)

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मुनि श्री प्रणम्यसागर जी - Muni Shri Pranamya Sagar Ji

महाकवि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के शिष्य समुदाय में से एक अनोखी प्रतिभा के धनी, संस्कृत, अंग्रेजी, प्राकृत भाषा में निष्णात, अल्पवय में ही अनेक ग्रंथों की संस्कृत टीका लिखने वाले मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने जनसामान्य के हितकारी पुस्तकों को लिखकर सभी को अपना जीवन जीने की एक नई दिशा दी है। मुनि श्री प्रणम्य सागर जी ने भगवान महावीर के सिद्धांतों को गहराई से चिंतन की कसौटी पर कसते हुए उन्हें बहुत ही सरल भाषा में संजोया है, जो कि उनके ‘गहरे और सरल’ व्यक्तित्व को प्रतिबिम्बित करती है।
मुनि श्री का लेखन अंतर्जगत की संपूर्ण यात्रा का एक नेमा अनोखा टिकिट है जो हमारे अंतर्मन को धर्म के अनेक विष

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लोक-विज्ञान 'तत्त्वार्थसूत्र' का तृतीय व चतुर्थ अध्याय आद्यकथन - डॉ० श्रीचन्द्र जैन रिटायर्ड प्रिसिपल परम तपोनिधि मुनिवर श्री प्रणम्यसागर जी महाराज ने प्रगल्भ प्रवचनों के माध्यम से 'तत्त्वार्थसूत्र' आगम के तृतीय एवं चतुर्थ अध्यायों में तीनों लोकों का सुष्ठु चित्रण किया है जो श्रोताओं/पाठकों के हृदय पर अनायास अंकित हो जाता है। वस्तुतः, मुनिश्री के प्रवचनों में विषय की प्ररूपणा, एक सफल सद्गुरु की भांति इतनी विशद, स्वच्छ व सबल उद्भासित हो जाती है कि बालबुद्धि (शिष्य) श्रोता भी उसकी सम्यक जानकारी प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। बोलचाल की भाषा, जनसाधारण की पदावली, तत्कालीन सामाजिक उदाहरण विषय को जीवन्त बना देते हैं। तृतीय अध्याय अहयोग प्रणेता मुनिवर ने तृतीय अध्याय को अधोलोक एवं मध्यलोक का जैन भूगोल (Jain Geography) कहकर पुकारा है। अधोलोक (नरकलोक)-मुनिश्री ने अधोलोक की उदगीरणा करते हुए बताया है कि चित्राभूमि (जिस पर हम रहते हैं) के अधोभाग के कुछ अन्तराल से नरकलोक प्रारम्भ होता है, जिसमें सात पृथ्चियों हैं जो एक दूसरे के नीचे क्रमशः स्थित हैं अर्थात प्रथम पृथ्वी सर्वोपरि है, शेष पृथ्वियाँ क्रमशः निम्नतर स्थित होने से सप्तम पृथ्वी निम्नतम विद्यमान है। पुनरपि वे एक दूसरी पर आश्रित (सहारे पर) नहीं हैं, परन्तु प्रत्येक के उपरिव निम्न भाग में पर्याप्त अन्तराल (Gap) है। इन पृथ्वियों में 84 लाख बिल है जिनमें रहने वाले प्राणी नारकी कहे जाते हैं। इन नरकों में एक ओर तो महाकष्टदायक प्राकृतिक वातावरण, क्षुधा-बुभुक्षा की प्रचण्ड व्याकुलता, शारीरिक असाध्य वेदना आदि रहती हैं तो दूसरी ओर, स्वभावतः परस्पर कलह व निरन्तर मारकाट आदि रहती है। इस दुर्दशा में भी असुरजाति के देव उन्हें परस्पर भिड़ाकर अग्नि में घी डालने का कार्य करते हैं। इतना कष्टप्रद जीवन होने पर भी उनकी अकालमृत्यु नहीं होती, बल्कि उन्हें पूर्ण आयु इसी प्रकार भोगनी पड़ती है। मुनिश्री प्रणम्यसागर जी का कथन है कि कुव्यसन करने वालों को यह (नरक) सुरक्षित स्थान मिल जाता है, क्योंकि वहाँ कोई सगा-सम्बन्धी रिश्तेदार या कोई भगवान नहीं मिलेगा। अपने दुष्कर्मों का फल स्वयं भोगना पड़ेगा।




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