प्राण वीर | Pran Veer

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Pran Veer by श्रीसूर्यकान्त त्रिपाठी निराला - Shree Soorykant Tripathi Nirala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) कर उन्हें प्रत्राम करती हूँ । पिताजी ! 'झापकों प्रणाम, मुझे छानत्द से आज्ञा दीजिए ।*? इतना कहकर उसने एक घार सच की ओर देखा '्ौर रिर उपाध्याय से मन्त्रादि कहने तथा विधि बतलाने की प्राथना की सथुरानाथ का कंठ इतना गदगटू हो रहा था कि उनके सुख से शब्द तक बाहर न निकलते थे और यदि जसे तसे निकलते भी थे तो रोती हुई सी आवाज में । कमलकुमारी उनकी 'योर देख कर दंसी 'ौर वोली उपाध्याय जी ! आपको क्या हो गया है ? चगर शाप दी शोक करेगे तो माता जी को कौन सान्त्वना देगा ? ब्ौर अगर ाप मंत्र ठीक प्रकार से नहीं कहने तो घिधी शास्त्र के अनुसार नहीं हो सकेगी और न मुक्ते ही समाधान दोगा। घताइए तो व मैं क्या करू ??? मथुरानाथ ने उत्तर दिया, 'कमलकुमारी ! हुम परम साध्वी हो; हमारे मंत्रों की तुम्दें क्या जरूरत है ? तुर्दें हम अशीबाद नहदीं दे सकते । इसके बदले तुमसे 'माशीवाद को याचना करनी होगी । तुम हमें प्रशाम नहीं कर सकती हो वरन हसें ही तुमको प्रशाम करना होगा । पर तुम्हारा '्ाश्रद ही है तो '्ात्मो, यहाँ खड़ी होतीं । मंत्र का उच्चारण करते ही **” ** पर, हैं ! यह क्या आपत्ति है ! घोड़ों पर सवार ये सिपाही इघर क्यों था रहे हैं '” परन्तु मथुरानाथ '्पने वाक्य को पूरी तोर से कह भी नस सके । ज्योंहो उन्होंने इतना कहा अं र कमलकुमारी ने, जो कि सती होते के लिर चिठा में दभदने को तयार खड़ी थी, ऊपर को देखा, त्यौंदी लगभग पचास सिपाही वहाँ आ खड़े हुए और 'बद् क्या ! यह क्या ? कह कर घूम सचाने लगे |




User Reviews

  • Yaduveer Singh

    at 2021-06-05 09:13:29
    Rated : 8 out of 10 stars.
    Novel download nhi ho rha..plz resolve this issue.
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