रसिक प्रिया | Rasik Priya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ तिन कबि केसबददास सों कोन्हों ध्मंसनेहू । सब सुख दैकरि यों कहो रसिकप्रिया करि देह । संबत सोरह से बरस बोते. श्रठतालोस । कातिग सुदि तिथि सपमी बार बरनि रजनीस ॥। कितु यह न समझना चाहिए कि केशव ने केवल इंद्रजीत का ही ध्यान रखकर इसकी रचना की है । वे प्रेरक मात्र थे । रसिकों के लिए ही रसिक- प्रिया बनी है । वह रसिकप्रिया है इंद्रजीतप्रिया नहीं-- श्रति रति सति गति एक करि विविध विवेक बिलास । रसिकन कों रसिकप्रिया कोन्ही. केसवदास ॥। काव्य भी नरकाव्य न होना चाहिए-- तातें रुचि सो सोचि पचच कीजै सरस का ्त केसव स्पाम सुजान को सुनत होइ बस चिस ॥। कबित्त का श्रत्वय सुजान को से है श्रर्थात्‌ स्याम सुजान का काव्य । सुजान शब्द श्रीकृष्ण श्रौर राधा दोनों के लिए प्रयुक्त होता था । इसलिए यदि कोई चाहे तो स्याम सुजान का श्रथे राधाकृष्ण भी कर सकता है । इसमें प्रधान रूप से श्छंगार का श्रौर गौण रूप से भ्रन्य रसों का विचार किया गया है । रस में प्रच्छन्न श्र प्रकाश भेद रुद्रभट्ट के स्थंगारतिलक के श्रतुगमन पर रखे गए हैं-- सुभ संजोग बियोग पुनि दे सिंगार को जाति । पुनि प्रच्छन्न प्रकास करि बोऊ दे दूं स्मंति ॥। प्रच्छन्न-प्रकाश का तात्पयें इन्होंने यों समभाया है-- सो प्रच्छन्न संजोग श्ररु कहेँ बियोग प्रमान । जाने पीव प्रिया कि सखि होहि जो तिन्हहि समान ॥। सो प्रकास संजोग श्ररु कहीं प्रकास थियोग । झपने श्रपने चित्त में जानें सिंगरे लोग ॥ . नाधिकाभेद में न्ययिका की जाति का वर्णन कामशास्त्र के ग्रनुसार पद्मिनी- चितरिणी-शंखिनी -हस्तिनी किया गया है । मुग्धा मध्यादि के विशेषण श्यूंगारतिलक के श्राघार पर हैं । हिंदी में आगे नायिकाभेद की जो परंपरा चली वह रस- मंजरी के अनुसार । केशव ने उसका श्रनुगमन नहीं किया किंतु हवावों का ग्रहण रसमंजरीकार के श्रनुकूल ही किया है। हास के चार भेद किए हैं-- मदहास कलहास भ्रतिहास ग्रौर परिहास । श्रन्यत्र परिहास को हास्यरस के भीतर नहीं रखा गया है श्यूंगारतिलक में भी नहीं । इसका हेतु यह है कि




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