तर्कभाषा हिंदी व्यख्या सहित | Tarkbhasha Hindi Vyakhya Sahit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १६ “न्यायसूत्र के” अध्ययन-अध्यापनका प्रचार मिथिला के दूरस्थ प्रदेशों में भी हो सकता है, तब भी इस प्ररन का क्या उत्तर होगा कि जहाँ न्यायसुत्र का प्रादुर्भाव हुआ वहाँ उसका भाष्य त लिखा जाकर अन्य प्रदेश में क्यों लिखा गया ? भर यदि लिखा गया तो भाष्य की रचना के वाद उस प्रदेश में न्याय विपय पर पुनः कोई महत्व- पूर्ण रचना क्यों नहीं हुई? पर मिधिला के सम्दन्ध में ऐसे प्रइन का कोई अवसर नहीं है, क्यों कि वहाँ “न्यायसुत्र' के उपजीवी ग्रन्थों को रचना निरन्तर होती रही । चात्स्यायन का समय -- वास्स्यायन के समय के सम्बन्ध में विचार करने पर यही कहना पड़ता हूँ कि ऐसी कोई सामग्री अभी तक हस्तगत नहीं हो सकी है जिसके आधार पर उनके समय के विषय में कोई निर्णयात्मक बात कहीं जा सके । अतः इस समय केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे न्यायसूत्र की रचना के बहुत बाद के हैं, क्यों कि उनके भाष्य को देखने से ऐसा ज्ञात होता हैं कि उनके समय तक न्यायदर्शन के अनेक सूत्रों के अर्थ के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यतायें बन चुकी थीं और सूत्रों में व्यक्त किए गये सिद्धान्तों के विरुद्ध अनेक मत खड़े हो गये थे । जेसे प्रमात्व को स्वत्तः और परत: दुज्नेय बताते हुए प्रमाण भादि पदार्थों के तत्त्वज्ञान को मसाध्य कह कर न्यायदर्शन के प्रथम सुन्र को असंगत घोषित कर दिया गया था । अत: भाष्यकार को “'प्रमाणतोथश्रतिपत्ती श्रवृत्ति सामथ्योद्थवसमाणमू' कह कर प्रमात्व के परतोग्राह्मत्व का समर्थन करते हुए सूत्र की संगति घतानी पड़ी । 7. इसी प्रकार सूत्रकारने 'तदत्यन्तविमोक्षोधपवर्ग:' इस सूत्र से बताया था कि सर्वविध दुः्खों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है, पर इसके चिरुद्ध यह मत्त खड़ा हो गया था कि मोक्ष में दुःख की केवल निवृत्ति हो नहीं होती, अपितु नित्य सुख की अभिव्यक्ति भी होती है । मत: भाष्यकार को “नित्यं सुखमाव्मनो मददत्त्ववन्मोक्षे व्यज्यते, तेनामिव्यक्ते: लात्यन्तं चिमुक्तः सुखी भवतीति केचिन्मन्यन्ते । तेपां अ्माणाभावादजुपपत्तिः' कहकर उस मत का खण्डन करना पड़ा । इसो प्रकार “कालात्ययापदिष्ट: काछातीतः' इस सूत्र का कुछ लोगोंने न्याय के अव- यवों का क्रमह्दीन प्रयोग करने पर कालालीत होता है, यह बर्थ समझ लिया था, अत भाष्यकार को...“ सूचाथं' * अवयवविपयासवचनम- भाप्तताठमिति निशमहस्थानमुक्तं तदेवेदं पुनरुच्यत इति । अतस्तन्न सूत्राथं: । कहू कर उसका खण्डन करना पड़ा । ऐसे अनेक उदाहरण भाष्य में प्राप्य हैं । इसलिए इतना भव्य ही सत्य है कि




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