प्रिय प्रवास | Priya Pravas

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Priya Pravas by अयोध्या सिंह उपाध्याय - Ayodhya Singh Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१७ फिन्त सिर विज दाव्द जितास्त श्रति-कड़ हद गये हैं संस्क्त प्राक्त संस्कृत प्राकत दिस एयर पिद्वद्यस्तेण दद्धेन जुड्ढेश त्र्द्ध बुदढ़ा कदानु कदारणु खलु कस कुपितेन कुबिदेशु राशा स्णा पालकेन पालयेण नशे णुय मिव चित्र सा जज्ण थोग्येन जोग्गेणु सलिल शलिल पानी ये पाणिएद्टि उद्यान उजाणं उपबन उबबण उपनिर्गजितन उधणिमन्तिदेस .... स्नातोईं हवादेहं इन दोनों प्रकार के उदूधूत शब्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट हो गया कि प्राक्त में संस्कृत के यदि अनेक दब्द ककंश से कोमल हो गये हैं तो उच्चारण पिमिन्नता जल-वायु ओर समय-ख्रोत के प्रभाव से चढुन से शब्द कोमल बनने के स्थान पर परम कणुे- कढ़ बन गये हैं । संस्कृत के न द्ध व य इत्यादि के स्थान पर प्राकत भाषा में ण ले ढ व अर इत्यादि का प्रयोग उसको बहुत ही श्रति-कड़ कर देता हैं और एसी अवस्था में जिस युक्ति का स्व क्रिया गया है बह केबल एकांश में मानी जा सकती दे. सर्चोदा में सहीं । अर जब यह युक्कित सर्वाश में ग्रहीत नहीं हुई ता जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन मे ऊपर से करता आया हूँ वही निर्विचाद ज्ञात होना हैं छोर हमको इस बात के स्वीकार करने के लिखे बाय करना हैं कि प्रात मापा से संस्कृत भाषा परुप नहीं हैं | तथापि राजदोखर जैसा वावदूक विद्वान उसको प्राह्त से परुप बतलाना हैं इसका कया कारण है ? में समझता हूँ इसके निम्नलिखित कारण हैं -- प्‌ कि




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