दक्षिण भारत के हिंदी प्रचार आन्दोलन का समीक्षात्मक इतिहास | Dakshin Bharat Ke Hindi Prachar Andolan Ka Sameekshatmak Itihas

Dakshin Bharat Ke Hindi Prachar Andolan Ka Sameekshatmak Itihas by पी.के. केशवन - P.K. Keshvan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पी.के. केशवन - P.K. Keshvan

Add Infomation About.. P.K. Keshvan

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
२ आज भारत स्वतंत्र है । दमने भारत में गणतंत्रात्सक शासन कायम करना चाहा और तदनुसार विधान भी बनाया | देश में सबसे अधिक व्यापक तथा सरल भाषा द्विन्दी को हमने एक स्वर में राजभाषा घोषित भी किया । देश के पुनगठन की बात तय हुई । तदनुसार माषावार प्रांतों की पुनरचना भी की गयी । देश के विकास के छिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनीं जिनमें राजभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार एवं दृद्धि का काय देश की भावनात्मक एकता के छिए अत्यंत आवश्यक समझा गया | अतः सन्‌ १९६५ के बाद अंग्रेज़ी के स्थान पर दिन्दी का व्यवहार सावजनिक रूप में करने का भी दमने निश्चय किया । लेकिन दुर्भाग्य की बात है हमारे देश की गति-विधि में कुछ ाकरिमक परिवतन हुए । भाषावार प्रान्त के पुनर्गठन के बाद प्रादेशिक भाषाओं के समर्थन में हिन्दी के विरुद्ध कुछ दक्षिणी छोग आवाज़ उठाने छगे । उनमें संकीर्णता इतनी बढ़ गयी कि वे हिन्दी तथा हिन्दीवालों को शंका की दृष्टि से देखने लगे । वर्षों का पुराना दिन्दी विद्वेष फिर से जाएत दो उठा । विवश द्ोकर केन्द्र सरकार को समझौते का रास्ता ग्रदण करना पड़ा । सन्‌ १९६५ के बाद भी अनिश्चित काल के लिए अंग्रेज़ी को हिन्दी की सहयोगिनी भाषा के रूप में बनाये रखने के लिये आवश्यक विधेयक आगामी विधान सभा में पारित करने की बात सोची गयी । राष्ट्रपिता ने हमें इन दब्दों में सावधान किया था अगर सरकारें और उनके दुफ़तर सावधानी नहीं लंगे तो मुमकिन है कि अंग्रेज़ी जवान हिन्दुस्तानी की जगह को हृड़प ले । इससे हिन्दुस्तान के उन करोड़ों लोगों को बेहद नुकसान होगा जो कभी भी अंग्रेजी समझ नहद्दीं सकेंगे । मेरे ख्याल में प्रान्तीय सरकारों के छिए यद्द बहुत आसान बात होनी चाहिए कि वे अपने यहाँ ऐसे कमेंचारी रखें जो सारा काम प्रांतीय भाषाओं और अन्तरप्रान्तीय भाषा में कर सकें । परंतु दुख की बात है कि भाषा की पराघीनता से हम अभी तक मुक्त नहीं हो सके भावात्मक एकता की आधार-शिढा ही इम पक्की न कर पाये | दक्षिण भारत ने सन्‌ १९१८ में दी द्विन्दी का राष्ट्रमाषा के रूप में स्वागत किया था। राष्ट्रपिता के नेतृत्व और भाशीवांद से हिन्दी का यहाँ जो प्रचार एवं प्रसार हुआ वह गोरव की वस्तु दै । पिछले वर्षों में दक्षिण में हिन्दी प्रचार आन्दोलन का सफल नेतृत्व करने में दक्षिण तथा उत्तर के कितने दी उच्च श्रेणी के नेताओं त्यागनिष् हिन्दी प्रचारकों तथा सच्चे देश हितैषियों का द्दार्दिक योगदान रहा है । इन दिनों भावात्मक एकता की आवाज़ क्यों बुलन्द है इसलिये कि प्रान्तीयता सांप्रदायिकता तथा दलबन्दी की विषैठी वायु में इमारा दम घुटने लगा है । राष्ट्रमाषा के प्रचार के मूल में गाँधी जी मारत कीं भावात्मक एकता ही देखते थे ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now