राज्यक्षमा विज्ञान | Raajayakshhmaa Vijnj-aan

Raajayakshhmaa Vijnj-aan by पारसनाथ पांडेय - Parasnath Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ३ ] शाज्यक्ष्मा विद्वान . अकव कमीलदकीकॉसकाकफककक्रलाकाप विषयक कककेफेलोम साफ याक ककया मल सवाकैफनकीजलगो फाइल वकुक >कययास्यासाकेकानहकाफेकोए गेलिकमबयाकवेकयाक कम्फर का ज्पीके मफकाविधिकविकयाका या सकियोशेकफके का कक सका कफ बाकि किकाकाफार थे मुलायम तथा पीला पड़ जाता है । जब घुलनेका शतिक्रम होता है तो फुस्फुस में गड़े पड़ जाते हैं। यक्ष्मा गेग में रक्तस्तराव होंना इन्हीं क्रियाओं का फढ स्वरूप है। लेनेक कीं कहीं यद बात महषिं चरक की निम्न लिखित उक्ति से एकदम मिठती जलती है असाकि - *तत:क्षणनाच्चवोरसो विषमगतित्वाच्च घायों: कण्ट- स्योद्व सनात्कास: संज्ञायते क्रास प्रसंगत उरसि क्षतें सशोणितंष्ठी- यति । शोणित गमनाच्चॉस्य दोवंध्यमुफजायते”, इत्यादि । कैनेक की स्रत्यु के बाद एक रूसी वेज्ञानिक 'बर्चों' की प्रसिद्धि हुई, इसने पूर्वोक्त विद्वानों के सारे छत्यें पर पानी फेर दिया। धह् डट्टितीय प्रभावशाली था । इसने इस मन्तब्य का प्रचार. किपा _ कि-यक्ष्मा गठिं अन्य रोगों के द्वाग भीं पायी लाती हैं। इसी मत का अनुयायी निमेयर ने तो यहां तक कह डाढा कि किसी भी झय रोगी ( रस रक्तादि विहीन ) को सबसे अधिक मय हैं कि वह यक्ष्मा पीड़ित हो जाय । अब इन बातों को निमू छ बतलानिवाथ्श विलेमिन १८६८ ई० में पदा हुआ, लो उसने यक्षमा प्रन्धि ( प०८216 ) को झुद्द पशुओं में लगाकर उन्हें यक्षमा रोग के सभी ढक्षणों से आक्रान्त दिखकाकर सिद्ध कर दिया कि वास्तत् मै यक्ष्मा देग का अस्तित्व भग ही है । तदुनन्तर १८८२ ई० मैं काक की प्रसिद्धि हुई, तो इसने टी० बी० ( यक्ष्मा जीवाणु ) का पता छगाया । इसके बाद अलिंक ने जीवाणुओं को अम्ल- प्राह्ी बतढ़ाया। काक ने १८८६ ई० में टी० धी० टॉक्सिन ( यक्षपा-जीवाणु-विक्ष ) का भाविष्कार किया. और १४०१ ई० में




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