दोहा कोश | Doha-kosh
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28.96 MB
कुल पष्ठ :
555
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५ थी जिसे साहित्य के रूप में ही पढ़ा-समझा जा सकता था । सरहपाद में संस्कृत के पंडित होते भी तत्कालीन भाषा को अपना माध्यम बनाया । बौद्ध हो नहीं ब्राह्मण-धर्म में भी अब नये घारमिक श्रौर दार्शनिक संप्रदाय उपस्थित होनंवाल थे ।. पाशुपत-धर्म अरब भी उत्तर श्रौर दक्षिण में प्रभावशाली था ।. गुप्तकालीन वेष्णव-ध्म ह्लासोन्मुख था । अरब दक्षिण के दांकर का मायावादी शअ्रद्वेत विज्ञानवाद दर्शन प्रकट हों रहा था। दांकराचायं सरहपाद के समकालीन थे । वह श्रसंग के योगाचार दशन को नई बोतल में पुरानी शराब डालने की उक्ति कं भ्रनुसार एक नया रूप दे रहे थे । यह बात लोगों से छिपी नहीं थी । उनके प्रतिद्वंद्वी शंकराचायें को प्रच्छन्न बौद्ध कहा करते थे । शंकर ने यद्यपि इस बात को छ्िपानां चाहा कि उनका दर्शन योगाचार की देन हू पर उनके मान्य आचार्य और परंपरा के श्रनूसार परमगुरु गौडपाद बुद्ध को नमस्कार करते अपनी ये कारिकाश्रों में उनके ऋण को स्वीकार करत हूं । शंकर मुह से न कहते भी अ्रचरण से बौद्ध श्ौर ब्राह्मण-दरनों के संबंध में समन्वयवादी हैं । धार्मिक मान्यताशं में भी वह समन्वयवादी थे । शिव किष्णु या झशक्ति- सभी को वह परमदेवत और श्राराध्य मानते थे । यद्यपि यही बात वेष्णव आ्रालवारों के संबंध में नहीं कहीं जा सकती पर उनके द्वारा वेष्णव-धर्म भी उस रूप को ले रहा था जो श्राज उत्तर और दक्षिण में देखा जाता हे श्रौर जिसका सबसे अ्रधिक जोर भक्ति पर हूं। बौद्धघमं की तरह ब्राह्मण धर्म के लिए भी यह काल एक नये संदेश का वाहक हूं । जेन- धर्म के बारे में यह बात उतने जोर से नहीं कही जा सकती पर वहाँ भी योगीन्दु रामसिहू-जेसे सन्तों को हम नया राग श्रलापते देखते हूं जिसमें समन्वय की भावना ज्यादा मिलती है । सरह के साथ एक नये धार्मिक प्रवाह को हम जारी होते देखते हैं जो झ्राज भी सन्त-परम्परा के रूप में हमारे सामने मौजूद है। इसके बारे में हम श्रागे कहनेंवालें हूं। सनतों के साथ जिस योग श्रौर भावनाओं का संबंध हैं वह भी इसी समय श्रपने नये रूप में प्रकट होते है। उनकी भावना या योग वही नहीं है जिसे पंतजलि के योगदर्शन या पुराने बौद्ध-सूत्रों में देखते हूं। इस ध्यान भर भावना के लिए यम-नियमों की उतनी अ्रावश्यकता नहीं मानी जाती थी श्र न उसके ढंग उतनें रूढ़ थें।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...