भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का विकास | Bhartiya Sabhyata Tatha Sanskriti Ka Vikas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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52 भारतीय सभ्यता तथो संस्कृति का विकास प्रान्त के शबरों तथा दक्षिण-पश्चिम के पुलिन्दी के नामों को सुनते है । ऐतरेय और जेमिनीय ब्राह्मणों के पिछले भागों मे विदर्भ (वरार) का उल्लेख भी दो बार आया है । उसके अतिरिवत मत्स्प सुरसेन और गाधार जैसी कुछ अन्य जातियों के नाम भी मिलते है । इनका अपना स्वशासन था । इससे प्रमाणित होता है कि हिमालय से विष्थ्याचल से बीच का प्राय सारा उत्तरी भारत सम्भवत. इससे बाहर का भाग शी आर्यी की ज्ञानपरिधि मे आ चुका था ः राज्यसत्ता की वुद्धि--कबीलो और जातियों के सम्मिश्रण नवीन प्रदेशों की विजय और फलस्वरूप राज्यों का विस्तार एव युद्धो मे नरेशों के सफल नेतृत्व से राजा की सत्ता और उसके परमाधिकारों मे वृद्धि हुई । बिना ग्वाले के चौपायो की जो स्थिति होती है वहीं बिना राजा के मनुष्यों की होती है । यह सिद्धान्त अगीकार कर लिया गया था । राजा अपनी प्रजा पर अनियन्त्रित राज्यसत्ता रखने का दावा करते थे । यहाँ तक कि ब्राह्मण भी उनकी इच्छाचुसार अलग कर दिये जाते थे । साधारण व्यक्ति को बलि शुल्क और भाग नामक कर देने पड़ते थे और राजा की इच्छानुसार उसे यातना दी जा सकती थी । निम्न श्रेणी के लोगो को इच्छानुसार मार दिया जाता था और निर्वासित भी क्रिया जाता था । राजा को जनसाधारण से उच्च पद पर निर्दिष्ट करने के लिए यनज्ञो एव आराधनाओ सहित विस्तृत अनुप्ठान होते थे । यद्यपि उस समय राजा के दँ वी अधिकार न थे परन्तु उनमे दँवी गुण माने जाते थे । सफल राजा सावंभौम एकराष्ट्र विराट अधिराज आदि प्रतिप्ठित पदों के प्राप्त करने का दावा करते थे और वाजपेय राजसुय अश्वमेध यज्ञो का अनुष्ठान कर अपनी खत्तरोत्तर बढती हुई शक्ति का परिचय देने लगे थे। ये सब साम्राज्यवाद और. पामन्तवादी विचारों के द्योतक है । राजा के प्रमुख कतंव्य सैनिक और न्याय सम्बन्धी कायं होते थे । वह अपनी प्रजा और कानूनों का सरक्षक था एवं उनके शत्रूओ का सहारक था । यद्यपि वह दण्ड-विधान से स्वय विमुक्त था परन्तु दण्ड देने की सर्वोपरि सत्ता उसके हाथो मे थी | राज्य पूबवंबत कुलागत ही होता था । अथवंवेद मे राज्याभिपेक के समय गीतों से प्रकट होता हैं कि सम्भवत प्रजा द्वारा राजा का निर्वाचन भी होता था । युद्ध में वह अब भी सेना का नेतृत्व करता था यद्यपि सेना का साधारण सचालक सेनानी था । यह सदिग्ध है कि वह भूमि का स्वामी था परन्तु सिस्सन्देह उस पर उसका बहुत कुछ स्वत्व था । राज्यसत्ता की वृद्धि होने पर भी राजा पूर्ण रूप से निरक्‌श नहीं हो पाये थे । समपंण-समारोह के समय क्‌छ ऐसी क्रिया-विधियाँ होती थी जिससे राजा को सिंहा- सन के नीचे उत्तरकर ब्राह्मणों को प्रणाम करना पड़ता था । अपने राज्याभिपेक के समय उसे धर्म-भक्ति की एव ब्राह्मणों तथा राज्य के कानूनों के सरक्षण की शपथ लेनी पड़ती थी 1 राज्याभिषेक के समय राजा से कहा जाता था हे राजनु यह राज्य तुम्हे कृपि प्रगति एव साधारण जनता के सुख-बैभव के लिए दिया जाता है । इसका अभिष्राय यह है कि राज्य स्वत्वाधिकार की वस्तु नहीं अपितु एक धरोहर था और इसे अधिकार मे रखने के लिए यह शर्त थी कि राजा जनसाधा रण का कल्याण करे । क्ग्वेदकालीन साधारण जनता की. राजनीतिक सार्वजनिक सस्थाँ-सभा और समिति --इस युग में भी विद्यमान थी । अथर्ववेद में यह उल्लेब है कि राजा और इन सस्थाओ से परस्पर सैत्रीपुर्ण सहयोग व सामजस्य राज्य की समृद्धि के हेतु




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