शरत् - समग्र खण्ड - ५ | Sharat Samagra Khand-5

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Sharat Samagra Khand-5 by विश्वनाथ मुखर्जी - Vishwanath Mukharjee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लिखते हैं उनके निकर्ट भी वह एक ही बात है। नहीं मानते तो अलग बात है लेकिन मान लेने के ला नहीं बचती है। चोट-चोट मे आफत विपद मे बहुत तरह से मैंने सोचकर देख लिया है वाग्वितण्डा भी खब सन लिया है लेकिन जो अन्धकार था वही अन्धकार है। छोटा-सा एक निराकार ब्रह्म मानो या हाथ-पाव धारी तैंतीस करोड देवताओ को ही स्वीकार करे-टकोई युक्ति नहीं लगती। सभी एक ही जंजीर मे बधी हुई है। एक को खीचने से सभी आकर उपस्थित हो जाते हैं। स्वर्ग-नरक आ जायेगे इहकाल परकाल आ जायेगे अमर आत्मा आ जायेगी तब कब्रिस्तान के देवताओ को किस चीज से रोकीगे? कालीघाट के कगालो की तरह। चुपके-चुपके तुम किसी एक आदमी को कुछ देकर क्या छुटकारा पा जाओगे? पल भर मे जो जहा था वही से आकर तुमको घेर लेगे ईश्वर को मानू और भूत से डरू नहीं... ? ऐसा नही हो सकता भूपति बावू। जिस ढग से उसने बाते की उससे सभी ठठाकर हसने लगे। दो छोटे बच्चो के हास्य कोलाहल से रविवार का अलस दोपहर चचल हो उठा। उपेन्द्र की पत्नी सुरबाला से प्रेरित दूर खडा अपने मन मे भुनभुना रहा था। वह भी हल्के भाव से हसने लगा। झगडे के जो बादल घिर भाये थे इस सब हसी की आधी से न जाने कहा विलीन हो गये। किसी को होश नहीं आ रहा कि दुपहरिया बहुत पहले बीत चुकी है और इतनी देर हो जाने से घर के भीतर भख -प्यास से बेचैन नौकरानिया आगन मे चिल्लाहट मचा रही थी और रसोईघर में रसोइया ५ काम छोड देने के दृढ़ सकल्प की बार-बार घोषणा कर रहा था। . - दो तीन महीने के बाद कलकत्ता के एक मकान मे एक दिन सवेरे नीद टूटने पर सतीश ने करवटे बदलते हुए अचानक यह निश्चय कर लिया कि आज स्कूल न जाऊगा। वह होमियौपैथिक स्कूल मे पढ़ रहा था। गैरहाजिर रहने की इस प्रतिज्ञा ने उसके तन मे अमृत की वर्षा कर दी और दमभर मे उसने अपने विकल मन को सबल बना डाला। वह प्रसन्नचित्त बैठ गया और तम्बाकू के लिए चीख-पुकार करने लगा। सावित्री कमरे मे आकर पास ही फर्श पर बैठ गयी। हसते हुए उसने पूछा नीद खुल गयी बाबू? सावित्री इस बासा की नौकरानी और गृहिणी दोनो है। चोरी नहीं करती थी इसलिए खर्च के रुपये-पैसे सब उसी के पास रहते थे। एकहरा बदन अत्यन्त सुन्दर गठन। उम्र इक्कीस-बाईस की होगी लेकिन चेहरा देखने से और भी कम उम्र की मालूम होती थी। सावित्री सफेद वस्त्र पहनती थी और दोनो होठ पान और तम्बाकू के रस से दिन-रात लाल बनाये रहती थी। वह हसकर बातचीत करना तो जानती ही थी उस हसी का मूल्य भी ठीक उसी तरह समझती थी । यृहसुख से वचित डेरे के सभी लोगो पर उसके मन मे आन्तरिक स्नेह-ममता थी। फिर भी कोई उसकी प्रशसा करता तो वह कहती कि आदर न करने की दशा मे आप लोग मुझे रखेगे क्यो वाबू इसके अलावा घर जाकर स्त्रियो से निन्‍्दा करके कहेगे डेरे पर ऐसी नौकरानी है जो भर पेट दोनो वक्‍त खाने को भी नही देती। उस अपयश की अपेक्षा थोडी-सी मेहनत अच्छी है। यह कहकर वह हंसती हुई अपने काम को चली जाती थी। डेरे मे एक सतीश ही ऐसा था जो उसका नाम लेकर पुकारता था। जब तब उसके साथ हसी-मजाक करता या और कभी इनाम भी दे देता था। उसका भी सतीश पर स्नेह कुछ अधिक मात्रा मे था। सारा दिन सभी काम-काजो मे व्यस्त रहने पर भी इसीलिए सदा एक आख और एक कान सुगठित सुन्दर युवक की तरफ लगाये रहती थी। बासा के सभी लोग इस बात को जानते थे और कोई-कोई कौतक के साथ इसका इशारा करने से भी बाज नही आते थे। सावित्री जवाब न देकर मुसकराती हुई कम पर चली जाती थी। सतीश ने कहा हा नीद खुल गयी। इतना कहकर तकिये के नीचे से उसने एक रुपया निकालकर उसके सामने फेक दिया। साचित्री ने रुपया उठाकर कहा सबेरे फिर क्या ले आने की जरूरत हो गयी? सतीश ने कहा सदेश। लेकिन मेरे लिए नहीं। अभी तुम रख लो रात को अपने वावू के लिए शरकेरन्णसय्हन रो




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