सूरदास | Surdas

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Surdas by ब्रजेश्वर वर्मा - Brajeshwar Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्ाविभावि हद चिस-चृत्तियों को हमेणा क्‍यों दबाए रहे ? या उन्हें दबाए रखना सभब मी है ? बल्समाषार्य कदाचित यह मानते थे कि मह समव नहीं है इसलिए सर्वमाव से भात्म-समप्रण हो तभी पूरा होगा जब मन भोर इद्ियों की सभी बृत्तियो को भगवान को समपिप्त कर दिया जाए । इस समपष के याद रस रूप राग गंप भौर स्पर्स के सांसारिक प्ाकपण नहीं सताठ क्योंकि इन सब की तृप्ति परम भानद रूप भगवान श्रीकृष्ण की सीसा में हो भावी है । उसी सीसा का मर्म सममाने के सिए भाचाय थी ने सूरदास को दीक्षा दी थी । फलस्वरूप कवि भीर मगत सूरदास का नए रूप में भाविमावि हुपा था । मूरदास के ीवम में उनके इस भाविर्माव को घटना सबसे भषिक महत्त्व की है । इसके भागे उनके भम बात्यकाल भादि की घटनाएं मुझा दो गई है । इसको चिस्ता ही नहीं की गई दि वे कब भौर कहाँ पैदा हुए और किस प्रकार उनका भारमिक जीवन यीता । पिर भी फुछ बातें थोड़ी गई हैं प्रौर धारमिक जीवनी बनाने का यह्न किया गया है 1




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