स्मृति की रेखाएँ | Smriti Ki Rekhaen

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Smriti Ki Rekhaen by महदेवी वर्मा - Mahadevi Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बनना ना स्मृति की रेखाएँ लय एक बार में उत्तर-पुस्सकों और नित्रो को छेकर व्यस्त थी तव मवितन सबसे कहती घूमी ऊ विभरिअद तौ रातदिन काम मां झुक्ी रहती हें अचर तुम पचे पुमठी फिरती हो चलो त्मिक तिनुग हाभ बटाय रूउ । सब जामते में कि ऐसे फार्मो में हाथ नहीं वठाया जा सकता अत उन्होंने भपनी असमर्वता प्रकट गर मक्तिन से पिप्ड छाया । वस इसी प्रमाण के माभार पर उसकी सद अतिझयोक्तियां अमरये सि सी फैसन छगी--उसकी मालकिन जेसा काम कोई जानता ही नहीं इसीसे तो दुष्हाने पर मी बगोई हाथ घटाने की हिम्मत गहीं करता 1 पर पर बहू स्वयं कोई सहायता महीं दे सकती इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है--इसी से वहूं दार पर. बैठकर बार बार कुछ काम बताने का आपह करती है। कमी उतर पुस्तकों को बांधकर कमी अधूरे चित्र को कोने में रखकर कमी रंग की प्याली धोकर सौर कभी चटाई को आांचर से झाइकर वह जसी सहायता पहुँचाती है उससे भव्तिन का अम्य ध्यकितियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। वह जानती है कि सब दूसरे मेरा हाथ यटाने की कस्पना तक महीं कर सकते तब बहू सहायता की इन्छा को फ्रियारमक रूप देती है इसीसे मेरी किसी पुस्तक के प्रकाशित होने पर उसके मुख पर प्रसप्तता की खामा वैसे ही उवुमासित हो उठती है जैसे स्विच दबाने से वतन में छिपा थारक । बहू सूमे में उसे बार वार छूकर भाखों के निषट फ़े जाकर गौर उव बोर भमा फिरा कर मानो अपनी सहायता का मंघ शोजती हू मौर उसकी दुष्टि में व्यषत लात्मतोप कहता है कि उसे निरादा महीं होना पड़ता 1 यहू स्वामावि सी हूँ। किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त में जय थार भार बहनें पर मी मोजम के छिए महदीं उठती तय वहू कमी दही का पयत कमी तुर्सी की चाय दही देकर भूख का बप्ट नहीं सहने देती ।




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