स्मृति की रेखायें | Smriti Ki Rekhayen

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Smriti Ki Rekhayen by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ स्मृति की रेखाएँ. जब एक वार में उत्तर-पुस्तकों और चित्रों को लेकर व्यस्त थी तथ भवितन सबसे कहती घूमी 'ऊ विचरियउ तौ रातदिन काम मां झुकी रहती हैं, अउर तुम पचे घुमती फिरती ही ! चछौ त्तनिक तिनुक हाथ वटाय लेख ।' सब जानतें थे कि ऐसे कामों में हाथ नहीं वटाया जा सकता, अतः उन्होंने अपनी असमर्थृता प्रकट कर भवितन से पिण्ड छुड़ाया । वस इसी प्रमाण के माघार पर उसकी सब अतिशयोनितयां अमरवे लि सी फंलने लगीं--उसकी मालकिन जैसा काम कोई जानता ही नहीं; इसीसे तो बुलाने पर भी कोई हाथ बढाने की हिम्मत नहीं करता । पर चहू स्वयं कोई सहायता नहीं दे सकती इसे मानना अपनी हीनता स्वीकार करना है--इसी से वह द्वार पर बैठकर वार वार कुछ काम बताने का आग्रह करती है। कभी उत्तर पुस्तकों को वांघकर, कभी अधूरे खिय् को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली घोकर भौर कभी चटाई को आंचल से झाड़कर वह जसी सहायता पहुँचाती हूं उससे भवितन का अन्य व्यक्तियों से अधिक चुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता हूँ। वह जानती है कि जव दूसरे मेरा हाथ वटाने की कल्पना तक नहीं कर सकते तब वह सहायता की इच्छा को क्रियार्मक रूप देती है, इसीसे मेरी किसी पुस्तक के प्रकादित होने पर उसके मुख पर प्रसन्नता की आगभा वैसे ही उद्मासित हो उठती है जैसे स्विच दवाने से व्व में छिपा आलोक । वह सूने में उसे वार वार छूकर, आंखों के निकट ले जाकर भर सब ओर घमा फिरा कर मानों अपनी सहायता का मंद खोजती है मौर उसकी दष्टि में व्यक्त आत्मतोप कहता हैं कि उसे निरादा नहीं होना पड़ता । यह स्वाभाविक भी हैं । किसी चित्र को पूरा करने में व्यस्त, में जब वार वार कहने पर भी भोजन के लिए नहीं उठती तब वह कभी दह्दी का दर्वत कभी तुलसी की साय वहीं देकर भूख का कप्ट नहीं सहने देती । ना ५ ना




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