आचार्य दंडी एवं संस्कृत काव्य शास्त्र का इतिहास - दर्शन | Acharya Dandi Avam Sanskrit Kavyashastra Ka Itihas-darshan
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18.5 MB
कुल पष्ठ :
446
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)न ७ वोघ इसी से हो जाता है। काव्य में रस-सिंद्धान्त की इस स्थापना का संस्कृत के पिछले कवियों पर वहुत दुष्प्रभाव पड़ा है वाणी-प्रयोग की उनकी मौलिकता का ह्लास होता गया है और वे रस-सिद्ध कवि होने के लिए उतावले बने रहे हैं। ऐसे भी कवि जिनका कृतित्व उनके दाव्दार्थ-प्रयोग उक्ति-चमत्कार में ऊँची प्रतिष्ठा पा सका है अपने को यही समझते रहे है कि इस प्रतिष्ठा का कारण मेरे कवित्व की रस-सिद्धता है जैसे नैषघीयचरित के रचयिता श्रीहष । श्रीहर्प ने अपने काव्य को शगारामृतशीतगुः अर्थात श्गार रस-रूपी अमृत का चन्द्रमा कहा है किन्तु श्छंगार रस के सोपाग काव्यलक्षण मे विहित स्थिति के उदाहरण उसमें ढूँढने पर ही मिलेगे। सम्भवतः श्रीहर्ष का अपने काव्य की इस प्रशसा में यह लक्ष्य रहा हो कि उन्होंने तीन सर्गों मे केवल दयमन्ती का नखशिख-वर्णन किया है और स्वयंवर की कहानी कई सर्गों में कही है किन्तु नायिका का येन केन-प्रकारेण वर्णन ही तो लक्षण-विहित श्गार-रस की स्थापना नही है उसमे भाव विभाव अनुभाव संचारी- भावों की यथायोग स्थिति बहुत आवश्यक है जो केवल नाट्य के रंगमंच पर ही आती है काव्य में भी वह जिस प्रकार स्वीकार की गयी है ऐसे चमत्कारी स्थल भी नैषघीय चरित में कम है। प्रेयसू रसवत् माव-शवलता अथवा भावोक्ति की वात यहाँ नहीं की जा रही है। नैषघीय चरित काव्य को प्रकाशित करनेवाली उसकी वे-जोड़ उक्तियाँ है जिनमे कही कल्पना की ऊँची उडान है कही मार्मिक परिस्थितियों का विम्ब-चित्र। काव्य मे उसकी आत्मा ध्वनि और ध्वनि की आत्मा रस की इस विपम स्थिति का आकलन कुन्तक ने किया तथा काव्य के वक्नोक्तिजीवित की अवतारणा की जो दण्डी के गुण वामन की रीति का अभिनव संस्करण और विस्तार था। वक्नोक्ति- जीवित में विस्मृत होती हुई काव्यलक्षण की मूल प्रकृति का पुन उद्धार हुआ। अर्थात् वाणी-प्रयोग मे कवि-प्रतिभा की सार्थकता का मूल्यांकन कुन्तक ने वताया। कुन्तक के वाद काव्य-लक्षण के सम्बन्ध में मौलिक चिन्तन का पटाक्षेप हो जाता है इसके दो कारण है--१. काव्य मे रस की स्थिति के प्रति दुराग्रह। २. देव की राजनीतिक स्थिति मे परिवर्तन इस्लाम धर्मावलम्वियों की विजय से सांस्कृतिक जीवन की अस्त-व्यस्तता और पद्चिमोत्तर भारत मे विद्वानों के राज्याश्रय का तिरोधान विद्वत्समभाओं की परम्परा का अवसान। पिछली दातियो मे औदीच्य विद्वानों की अपेक्षा पूर्व तथा दक्षिण भारत के विद्वानों ने ही काव्यलक्षण की मीमांसा में अधिक भाग लिया है और प्राय. सभी ने रस को केन्द्र मे रख कर अपना काव्य- शास्त्रीय चिन्तन किया है । इन हजार वर्पों के काव्यलक्षण के जीवन का आकलन यदि हम करे तो एक विचित्र स्थिति सामने आती है। लगभग विक्रम की चौथी चर
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