नागरिक कहानियाँ | Nagarik Kahaniya

Nagarik Kahaniya by भगवानदास केला - Bhagwandas Kela

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नागरिक कहानियाँ भ गक लावा जा या के कानों मे प्रवेश नही किया था। वह चौका । बच्चों का सिर. लडा लडाकर उनके चीखने और रोने और हाथ पेर फेंकने के बेबसी के व्यापार ने उसके बवर उल्लास को इस संमय पूरी तरह उभार रक्‍्खा था । उल्लास तो क्रोघ में परिवर्तित होगया । बबरता बनी हुइ थी । उसने मुट्रियाँ ढीली करके बच्चो की गरदन तो छोड़ दी भड़्भड़ा कर दोनो हाथ बढ़ाकर झगु को गरद्न पर सारे । भगु बेहोश होकर गिर पड़ा। सुदास का पाशबविकं व्यापार और भी बढ़ गया । वह अंकुश जानता ही न था । उसने झणु की भोपड़ी नोच फेंकी । पागलों की भांति उसकी वस्तऐ इधर उधर फेक दी । भोपड़ियो से से और लोग निकल कर बाहर भकॉकने लगे भ्रगु की उस दारुख व्यथा आर अवस्था को देखकर वे रो पड़े । उसका प्यारा भोपडा उन्होंने अपनी आंखों से उजड़ता देखा । उन्होंने देखा कि सुदास इतना भारी काम करके भी इठलाता हुआ धीरे धीरे उनकी आंखो के सामने से जंगल मे. ओोकल होगया । भ्रणु की दुरवस्था की खबर सारे समूह मे फल गई । बालक-बच्चे खी-पुरंष सब उसे देखने जुड़ आये । और उस दिन पहली बार उन लोगो ने अजुभव किया कि हमे दूसरे की हानि से दुःख होता है । और ऐसा आदमी जो दुःख प्रहुँचाता रे अच्छा नहीं । उन्होने सोचा कि सुदास को ऐसा व्यवहार बच्चो और भझणु के साथ क्यो करना चाहिये? उसकी भोपड़ी और चीजों को उसने इस श्रकार क्यो तोड़ फेका ? झ्रणु ने क्या बिगाड़ा था वह सीधा-सादा भला आदमी उसने क्यो सताया




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