कैलास - मानसरोवर | Kailash Mansarovar

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श्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

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स्वामी प्रणवानंद - Swami Pranavanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हूँ हु. निकल नेबाली ज्लुद्र नदियों के जिन्हे कुमारउँनी भाषा म गेसरे कहते ह्श्रीर उन नदी सहसों से अनुगत महानदियो के जिन्होंने करोड़ो वर्षों के पराक्रम से श्रपने वेग को रोकने वाले गडशैलों को चीर कर अपने प्रवाह के लिये मार्ग बनाया है सुदर-सुदर नामों का चुनाव सर्वप्रथम हमारे पूर्वजों ने संस्कृत भाषा के द्वारा किया | मालूम होता है कि किसा नियसित सघ के श्रघिवेशनों में उन्होंने इत कार्य को सपादित किया होगा । उदाहरण के लिये दम गगा के नामों को ही देखते हैं । बदरपूछि से लेकर नदादेवी तक गगा का प्रस्वण क्षेत्र फैला है । उसके पूव और पश्चिम दो भाग हैं । पूत्र के क्षेत्र मे बद्रीनाथ की ओर से अवतीर्ण विष्णुगगा (जिसे सरस्वती भी कहते हैं) श्रौर द्रोसगिरि के पश्चिम से घौलीगगा की धाराएं जोशीमठ के पास मिली हैं उस सगम का नाम विष्णुप्रयाग है । इससे कुछ ही पहले नदादेवी से श्रानेवाली ऋषिगंगा धो ली- गगा मे मिली है । विभुणुप्रयाग के बाद संयुक्तघार श्रलकनंदा कहलाती है । कुछ दूर श्रागे चलकर उसमें नदाकना पवत से झ्राई हुई नंदाकिनी मिलती है । उस स्थान का नाम नंदप्रयाग है । फिर कुछ श्रागे नदाकोट श्र त्रिशूल शिखरों के जलो को लाकर पिडरगंगा कणुप्रयाग के सगम पर श्रलकनदा से मिलती है । इसके श्रागे केदारनाथ की ओर से आकर म्दाकिनी रुद्रप्रयाग के संगम पर झलकनदा से मिली है । और उसके ागे भागीरथी और अलकनदा का सगम देवप्रयाग मे होता है । श्रब अपने पूर्ण विकित रूप में अलकनदा गगा बनकर हषीकेश में होती हुई हरिद्वार में उतरी है जिसे गगाद्वार कहा गया है । इस द्वार से प्रवेश करने पर गगा अपनी हिमालय यात्रा का मनोरम अध्याय समाप्त करती हैं इसीलिए कवि ने मेघ को माग बताते हुए कहा है-- तस्मादूगच्छेरनुकनखल शैलराजावतीर्णमू जह्नो कन्या सगरतनय स्वगं सोपान पक्तिमू । (सिघ० १1५०) जह्द की कन्या जाह्नवी गगा का एक पर्याय होते हुए भी गंगा की एक उपरली धारा का नाम है । महान्‌ हिमालय की ऊँची चोटियो के उस पार गगोत्तरी से भागीरथी का उद्गम है। यह जाह्नवी की धारा गगोत्तरी से कुछ ही मील नीचे भागीरथी में मिली है । पर वह हिमालय के भी उस पार जस्कर




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