एक क्रन्तिकारी के संस्मरण | Ek Krantikari Ke Sansmaran

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Ek Krantikari Ke Sansmaran by धीरेन्द्र वर्मा - Dheerendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) सकता है कि छाः:-सात वष॑ की उम्र में एक लड़के की पीठ में सूखे खपड़े का चाकू भोंक देने के कारण सुके झोर मेरे साथ सुकसे ढाई वर्ष बड़े भाई को भी हवालात, जमानत, सुंकदमा, कचहरी सब कुछ देखना पड़ा था । जिसकी पीठ में चाकू भॉका था उसका अपराध यह था कि उस बेचारे ने खेलते-खेलते गुस्से में बड़े भाई को विष्ठा खिलाने की बात कह दी थी | कल्याण श्रम” के लिए मिक्षा माँगने को मेरे पास काफी सपय था । उस समय सुममें देश के नाम पर चोरी, डकैती, हत्या या भीख माँगने की भावना की कमी न थी । बाबा विश्वनाथ के दरवाजे से लेकर जाह्नवी के तट तक का रास्ता मेरे लिए खुला था । रोज चार-पाँच से लेकर अठारह-उन्नीस रुपये तक में माँग लाता था । इघर रुपया माँगना, उघर रँगरूट लाना, दोनों कामों में मेरा बड़ा उत्साह था । इन सबसे बड़ा एक झौर काम था । वह था सब बातों को गुप्त रखना, यानी हम लोग दृथियार इकट्ठा करते हैं, कौन- कौन हमारे सम्पक में आरा रहे हैं, किसी भी हालत में ये बातें प्रकट न द्दो जाये । इसकी चेष्टा बनी रहती थी । ऊपर से इस बात का भी प्रचार करना पढ़ता था कि ब्रह्मचारी लोग बहुत अच्छे छोर उच्च कोटि के योगी हैं | इसी बीच एक दिन एक ब्रह्मचारी ने सुभसे अपने बड़े भाई से पिला देने के लिए कहा । पता नहीं कि उन्होंने स्वयं मेरे बड़े भाई के विषय में पता लगाया था या मेरी बातों से उन्हें कुछ ाभावत हुआ्मा था । में प्राय: ही उनसे अपने भाई की चर्चा किया काता था । कारणा, उन दिनों गया में होनेवाली कांग्रेस के संबंध में मेरे भाई श्री मन्मथनाथ राप्र घर में प्राय: नित्य कुछ न कुछ बातचीत किया करते थे | वे मुझसे केवल ढाई वष॑ बड़े, किन्तु फिर भी ज्ञान में मुम्से बहुत बड़े थे । उन्हीं दिनों वे गया में होनेवाली कांग्रेस का महत्त्व तथा श्री मोतीलाल नेहरू, श्री सी० झ्ार० दास तथा महात्मा गांघी




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