कृष्ण - गीता | Krishn - Geeta

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Krishn - Geeta by दरबारीलाल - Darbarilal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(श३) इंद की कतिया नहीं ये प्रकृति की रचना नहीं | कव्पना बाज़ार की है पेट भरने के छिये ॥ जिस तरह सुविधा हमें हो उस तरह रचना करें । जाति जीने के छिये है है न सरने के छिये ॥ विश्रता की है जरूरत शूद्रता की भी यहा । प्रेस से जग से मिलेंगे हस विचरने के छिये ॥ विश्रता का मद नहीं हो छुद्ता का देन्य भी। हो परस्पर प्रेम यह ससार तरने के लिये ॥ रन शः भव भेद रहे वेषम्य रहे वह जो सहयोग बढ़ाये । पर यह मानव--जाति न चिथडे चिथडे होने पाये ॥ ठीक इसी प्रकार समन्वय के कुठार से साम्प्रदायिक मोह पर आधात करते हुये बारहवे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते है - अजुन सब की एक कहानी । पंथ जुदा है घाट जुदे हैं पर है सब में पानी ॥ अर्जुन सब की एक कहानी | जब तक सर्म न समझा तब तक होती खीचातानी । पदों हदा हटा सब विश्रम दूर हुई नादानी ॥ वर्ण-अवर्ण अहिसा-हिंसा मूर्ति न मानी मानी | क्या प्रवृत्ति अथवा निवुत्ति क्या हे सब धर्से निशानी ॥ यह विरोध कल्पना शब्द की होती है सनमांनी । लड़ते और झगडते मुख करें समन्वय ज्ञानी ॥ अजुन सब की एक कहानी ॥ श्रीमदूभगवद्गीता के द्रव्य यज्ञास्तपो यज्ञा योग यज्ञा स्तथापेर स्वाध्याय ज्ञानयज्ञाच्च यतयः संशित-ब्रताः ४-२८. की तरह प्रस्तुत गीता के बारहवे अध्याय में विविध यज्ञ का वर्णन करते हुए अंत में कहा गया हैः--- जी




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