इंद्रजाल | Indrajal

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Indrajal by रघुनाथ सिंह - Raghunath Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ | व्वटत खोजा परन्तु मिल न सका | दस चष श्मौर वीत गए। एक दिन जब बाहर से घूमकर लौट रहा था तो मुझे भगवान्‌ रामचन्द्र के विषाद की बात पुनः स्मरण -हो झाई । घर पर आकर पुरानी गीता का पता लगाया जिसका पाठ बीस चषे पहले मामी किया करती थीं । किन्तु वद्द न मिली | झाकरमात्‌ दो दिन पश्चात्‌ मैं अपने सित्र बाबू ज्योतीभूषण शुप्त के पास झजमतगढ़-पलेस पहुँचा । वहाँ मुे डाक्टर भीखनलाल झ्यात्रेय कृत योगवासिप्त और उसके सिद्धान्त सिला। उसे देखते ही योगवासिप् के सम्बन्ध की सारी बातें याद श्या गई | मैं उसे अपने मित्र से मॉगकर रास्ते-भर पढ़ता हुआ अपने शान्ति-निकेतन दशाश्वसेघघाट पर पहुँचा | उस योगवासिप्त के सिद्धान्त के शारम्भ में ही बहुत से उपाख्यान दिए हैं। उनमें इन्द्रजालोपाख्यान नाम का एक अत्यन्त रोचक उपाख्यान हैः । मनुष्य की मानसिक भावनाओं को लेकर वह उपाख्यान लिखा गया है. । मुझे वह पसन्द शा गया जो प्रस्तुत उपन्यास का आधारभूत है| प्रस्तुत उपन्यास आरम्भ करने के पहले मूल योगवासि्ठ देखना आवश्यक था । बड़े प्रयत्न से संस्कृत की मूल पुस्तक बंगला में अपने सित्र श्री तारापट भट्टाचाये की सहायता से उप लब्घ हो सकी । उन्हीं की कृपा से मथुरा-जेल में जो बेंगला- अचुवाद सुझे देखने को सिला था वद्द भी मिल गया । बीस लरप पश्चात्‌ मथुरा मिश्र के यहाँ भी मैं अपनी मामी की पुस्तक




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