अभिधर्म कोश भाग - २ | Abhidharm Kosh Part-2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
50.37 MB
कुल पष्ठ :
270
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji
No Information available about आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji
वसुबन्धु - vasubandhu
No Information available about वसुबन्धु - vasubandhu
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चतुथे कोशस्थान कमें-निर्देदा ११ में संग्रहीत नहीं होता । यह सर्वथा उचित है किन्तु वर्ण में भी यही होना चाहिये । दीघ॑त्व- रूप नहीं है तथा सन्निविष्ट रूप (वर ) या स्प्रष्टव्य (इलक्ष्य झादि) को दीघं की प्रज्ञप्ति दी जाती है । १०] वैभाषिक उत्तर देता है--जब स्पशं . के अनन्तर हम दीघंत्व का ग्रहण करते हैं तो यह नहीं है कि हम कायेन्द्रिय से संस्थान का ग्रहण करते हैं । हममें संस्थान के विषय में स्मृतिमात्र होता है क्योंकि के साथ इसका साहचयं होता है (साहचर्यात् व्या० ३४९-५) यथा जब हम अग्नि का रूप देखते हैं तो उस शझ्ररिन की उष्णता (स्प्रष्टव्य ) की स्मृति होती है । जब हम एक पुष्प के गन्ध को सूँचते हैं तो उसके वर्ण की भी स्मृति होती है । झापके इन दो उदाहरणों में यह युक्त है कि वर्ण से स्प्ं का और गन्घ से वर्ण का स्मरण होता है क्योंकि इन धर्मों का श्रव्यभिचार है (अ्रव्यभिचारात् व्या० दे४€-६) । सब अग्नि उष्ण है भ्रमुक पुष्प का भ्रमुक गन है। किन्तु कोई स्प्ष्टव्य (दलक्ष्णत्व शभ्रादि) संस्थान विशेष में नियत नहीं हैं । फिर स्प्रष्टव्य के ग्रहण से संस्थान-विज्ञेष का स्मरण कैसे होगा ? यदि स्प्ष्टव्य श्रौर संस्थान के बीच साहचर्य-नियम के न होने पर भी ऐसी स्मृति उत्पन्न हो तो इसी प्रकार स्पद्यं के अनन्तर वर्ण का स्मरण होगा । झथवा कायिक उपलब्धि के अ्रनन्तर संस्थान श्रनियत रहेगा जैसे इसी उपलब्धि के शभ्रनन्तर वर्ण श्रनियत रहता है । स्पर्श करने पर संस्थान का ज्ञान नहीं होगा । किन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिए यह कहना झावदयक नहीं है कि स्प्रष्टव्य के ग्रहण से संस्थान का स्मरण होता है । (२) द्वितीय युक्ति -एक चित्रास्तरण में हम श्रनेक संस्थान देखते हैं । इसलिए आपके भ्रनुसार एक देश में ही बहु संस्थान-रूप होंगे । यह वर्णवत् अयुक्त है । यदि संस्थान द्रव्यसत् है तो श्रास्तरण में जो दीघं रेखा का भाग है वह साथ ही साथ एक छ्स्व रेखा का भाग नहीं हो सकता । | (३) तृतीय युक्ति--सब नीलादि सप्रतिघ (१.२४बी) रूप-द्रव्य में स्वभाव-विश्वेष के अणाद्रव्य होते हैं । नीलादि वसुंरूप अझ्रष्टद्रव्यकादि अणु में अवश्यमेव विद्यमान होता है (र. २२ अनुवाद पृ० १४४) । किन्तु-३ स. संस्थान भ्रणु में नहीं होता । रे दीर्घ॑त्व का कोई अझ्रण नहीं है । वास्तव में जब दी्घ संघात का शझ्पचय होता है तो एक क्षण आ्राता है जिसमें उसके सम्बन्ध में दीघं बुद्धि का भाव नहीं होता किन्तु हस्ववुद्धि होती है । .. ११] इसलिए यह बुद्धि वस्तु में विद्यमान संस्थान-रूप के नहीं प्रदृत्त होती इसलिए जिसे हम दीर्घ की प्रज्ञप्ति देते हैं वह तथा सन्निविष्ट बहु द्रव्य हैं जो वें के परमाणु हैं । यदि झापका मत है कि दीर्घादि संज्ञा तथा सप्निविष्ट संस्थान-परमाणु (संस्थान- १- न चाखणौ तत् । (व्या० २०-४५) । लाल
User Reviews
No Reviews | Add Yours...