अभिधर्म कोश भाग - २ | Abhidharm Kosh Part-2

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आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji

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वसुबन्धु - vasubandhu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चतुथे कोशस्थान कमें-निर्देदा ११ में संग्रहीत नहीं होता । यह सर्वथा उचित है किन्तु वर्ण में भी यही होना चाहिये । दीघ॑त्व- रूप नहीं है तथा सन्निविष्ट रूप (वर ) या स्प्रष्टव्य (इलक्ष्य झादि) को दीघं की प्रज्ञप्ति दी जाती है । १०] वैभाषिक उत्तर देता है--जब स्पशं . के अनन्तर हम दीघंत्व का ग्रहण करते हैं तो यह नहीं है कि हम कायेन्द्रिय से संस्थान का ग्रहण करते हैं । हममें संस्थान के विषय में स्मृतिमात्र होता है क्योंकि के साथ इसका साहचयं होता है (साहचर्यात्‌ व्या० ३४९-५) यथा जब हम अग्नि का रूप देखते हैं तो उस शझ्ररिन की उष्णता (स्प्रष्टव्य ) की स्मृति होती है । जब हम एक पुष्प के गन्ध को सूँचते हैं तो उसके वर्ण की भी स्मृति होती है । झापके इन दो उदाहरणों में यह युक्त है कि वर्ण से स्प्ं का और गन्घ से वर्ण का स्मरण होता है क्योंकि इन धर्मों का श्रव्यभिचार है (अ्रव्यभिचारात्‌ व्या० दे४€-६) । सब अग्नि उष्ण है भ्रमुक पुष्प का भ्रमुक गन है। किन्तु कोई स्प्ष्टव्य (दलक्ष्णत्व शभ्रादि) संस्थान विशेष में नियत नहीं हैं । फिर स्प्रष्टव्य के ग्रहण से संस्थान-विज्ञेष का स्मरण कैसे होगा ? यदि स्प्ष्टव्य श्रौर संस्थान के बीच साहचर्य-नियम के न होने पर भी ऐसी स्मृति उत्पन्न हो तो इसी प्रकार स्पद्यं के अनन्तर वर्ण का स्मरण होगा । झथवा कायिक उपलब्धि के अ्रनन्तर संस्थान श्रनियत रहेगा जैसे इसी उपलब्धि के शभ्रनन्तर वर्ण श्रनियत रहता है । स्पर्श करने पर संस्थान का ज्ञान नहीं होगा । किन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिए यह कहना झावदयक नहीं है कि स्प्रष्टव्य के ग्रहण से संस्थान का स्मरण होता है । (२) द्वितीय युक्ति -एक चित्रास्तरण में हम श्रनेक संस्थान देखते हैं । इसलिए आपके भ्रनुसार एक देश में ही बहु संस्थान-रूप होंगे । यह वर्णवत्‌ अयुक्त है । यदि संस्थान द्रव्यसत्‌ है तो श्रास्तरण में जो दीघं रेखा का भाग है वह साथ ही साथ एक छ्स्व रेखा का भाग नहीं हो सकता । | (३) तृतीय युक्ति--सब नीलादि सप्रतिघ (१.२४बी) रूप-द्रव्य में स्वभाव-विश्वेष के अणाद्रव्य होते हैं । नीलादि वसुंरूप अझ्रष्टद्रव्यकादि अणु में अवश्यमेव विद्यमान होता है (र. २२ अनुवाद पृ० १४४) । किन्तु-३ स. संस्थान भ्रणु में नहीं होता । रे दीर्घ॑त्व का कोई अझ्रण नहीं है । वास्तव में जब दी्घ संघात का शझ्पचय होता है तो एक क्षण आ्राता है जिसमें उसके सम्बन्ध में दीघं बुद्धि का भाव नहीं होता किन्तु हस्ववुद्धि होती है । .. ११] इसलिए यह बुद्धि वस्तु में विद्यमान संस्थान-रूप के नहीं प्रदृत्त होती इसलिए जिसे हम दीर्घ की प्रज्ञप्ति देते हैं वह तथा सन्निविष्ट बहु द्रव्य हैं जो वें के परमाणु हैं । यदि झापका मत है कि दीर्घादि संज्ञा तथा सप्निविष्ट संस्थान-परमाणु (संस्थान- १- न चाखणौ तत्‌ । (व्या० २०-४५) । लाल




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