पंचवटी | Panchavati

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मैथिलीशरण गुप्त - Maithili Sharan Gupt

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श्रीकृष्ण खडपेकर - Srikrishn Khadapekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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होता यदि राजत्व मात्र ही लक्ष्य हमारे जीवन का तो .क्यों अपने पूर्वज उसको छोड़ मार्ग ठेते वन का? परिवर्तन ही यदि उन्नति है तो हम बढ़ते जाते हैं किन्तु मुझे तो सीधे-सच्चे पूर्व-भाव ही भाते हैं ॥ जो हो जहाँ आर्य रहते हैं वहीं राज्य वे करते हैं _ उनके शासन में वनचारी सब स्वच्छन्द विहरते हैं। रखते हैं सयल हम पुर में जिन्हें पींजरों में कर बन्द वे पशु-पक्षी भाभी से हैं हिठ़े यहाँ स्वयमपि सानन्द करतें हैं हम पतित जनों में बहुधा पशुता का आरोप करता है पशु वर्ग किन्तु क्या निज निसर्ग नियमों का लोप ? मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूँ किन्तु पतित को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूँ ॥। आ आकर विचित्र पशु-पक्षी यहाँ बिताते दोपहरी .. भाभी भोजन देतीं उनको पश्चचटी छाया गहरी। चारु चपल बाठक ज्यों मिठकर माँ को घेर खिझाते हैं खेल-खिलाकर भी आआर्य्या को वे सब यहाँ रिझाते हैं गोदावरी नदी का तट यह ताठ दे रहा है अब भी चंचल-जठ .कल-कठ कर मानो तान दे रहा है अब भी नाच रहे हैं अब भी पत्ते मन-से सुमन महकते हैं चन्द्र और नक्षत्र ललककर छाठच भरे लहकते हैं।। वैतालिक विहंग भाभी के सम्प्रति ध्यान ठग्न-से हैं नये गान की रचना में वे कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं। बीच-बीच में नर्तक केकी मानो यह कह देता है- हि _ मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कठ कौन बड़ाई छेता है।। (२१६) ः




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