मुद्रा शास्त्र | Mudra Shashtra

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Mudra Shashtra by Pran Nath Vidhyalankar - प्राण नाथ विद्यालंकार

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ हुए भी जातियाँ किसी एक संसार-मान्य सावभौम मुद्रा का.स्वीकार नहीं कर रही हैं । यही नहीं मुद्रा जातीय.विज्ञा- पन का साधन बन रही है। इंग्लेंड तथा जर्मनी का यह विश्वास है कि झांग्ल तथा जर्मन मुद्रा के चलन से एशिया के देशों में हमारा व्यापार वहुत बढ़ सकता है। निस्संदेह इसमें सचाई है। परतु संसार का हित इसी में है कि सभी देश किसी एक ही मुद्रा का समान तौर पर व्यवहार करें । मुद्रा तथा विनिमय का वर्त्तमान स्वरूप व्यापार तथा व्यवसाय की बुद्धि में एक मुख्य कारण है। इसी के कारण पूँजी का एकत्र करना खुगम हो गया है । एकत्र पूँजी से लोग भिन्न सिन्न कंपनियों के हिस्से खरीदते हैं और इस प्रकार नवीन उद्योग-घंघों को बढ़ाते हैं । भारत में रेलों चाय के बागों तथा जूट की कंपनियों में रुपयोँ का लगाना इसी वात का उदाहरण है। बहुत दूर के देशों में पूँजी का लगाना उत्तम सुद्रा के बिना नहीं हो सकता । पणुं प्रतिपण या बार से पँजी का भ्रमण स्थानीय ही होता है। व्यय-योग्य पदार्थों का बढ़ना रुक जाता यदि मुद्रा बार्टर का स्थान ले लेती । परंतु इसका यह मतलब नहीं कि मुद्रा की संख्या के बढ़ते ही व्यय-योग्य पदार्थ बढ़ जाते हैं श्रौर कोई देश समद्ध हो जाता है। जरूरत से ज्यादा मुद्रा की संख्या बढ़ने का यरिणाम महूँगी है। महंगी होते ही देश की मुद्रा उस श्रोर बह जाती है जहाँ सस्ती हो । यही बात देश में सोने चाँदी




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