वचन - साहित्य - परिचय | Vachan Sahitya Parichay

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Vachan Sahitya Parichay by बाबुराव कुमठेकर - Baaburav kumathekarरंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर - Rangnath Ramchndr Diwakar

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रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर - Rangnath Ramchndr Diwakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ प्राथमिक दाब्द कभी-कभी जीवनमें ऐसा एक क्षण श्राता है कि उस एक क्षणमें जीवनके युग-युग प्रतिबिबित हो जाते हैं । मेरे जीवनमें यह क्षण भी एक ऐसा ही क्षण हैं। मैं वचन-साहित्य-परिचयके लिए कुछ दाब्द लिखने बेठा हूं श्रौर मेरी श्रांखों- के सामने सालोंका इतिहास केन्द्रित-सा हो गया है। १९४७ भारत स्वतन्त्र हो गया विदेशी सत्ताकी पुलिससे भागता-भागता फिरनेवाला मैं कुछ सम्भलकर क्वतकृत्य भावसे लोक-दिक्षा के क्षेत्रमें कुछ करनेकी झाकांक्षासे दिल्‍ली श्रा गया । पू० दिवाकरजीके पास रहकर हिन्दीमें एक मासिक पत्रिका प्रारंभ की । उन्हीं दिनोंमें पु० दिवाकरजीने श्रपना एक ग्रंथ वचन शास्त्र रहस्य मेरे हाथमें देकर कहा कन्नड़ शिवद्यरणोंका झ्रमृत-सन्देद है । मैंने उत्साहसे पुस्तकको लिया । उसके बाद प्रथमत मेरे यकायक श्रत्यस्वस्थ हो जानेके कारण तथा कतिपय श्रन्य कारणोंसे मासिक पत्रिका प्रारंभ होते ही समाप्त हो गयी । मुभे ध्रपने मित्रोंके प्रेम तथा सहयोगसे भी वंचित होकर दर-दर भटकना पड़ा । पुस्तक वेसे ही रह गयी । १९४५१ राष्ट्र-भाषा प्रचार-समिति वधनि भारतीय भाषाधोंके चुने हुए साहित्यका हिन्दी भ्रनुवाद क रनेकी योजना बनायी । म० पं ० राहुल सांकृत्यायनजी उसके संचालक बने । कन्नड श्रौर मराठी साहित्यके हिन्दी भ्रनुवादके लिए मेरी नियुक्ति हुई । मैं राहुलजीके पास मसूरी श्रा गया । राहुलजी मुभ्ते बार-बार कन्नड देव साहित्यका हिंदी भ्रनुवाद करनेको कहते थे । उनकी प्रेरणासे मैंने कननड वी रक्षव-साहित्यका श्रध्ययन प्रारंभ किया श्रौर इन्हीं दिनोंमें हिन्दी साहित्य सम्मेलनके पदाधिकारियोंके महाभारतसे समितिका वातावरण भी दुषित हुध्ना। समितिने श्रपनी योजना छोड़ दी । मसूरीका कार्यालय बन्द हुभ्रा । मैं दिल्‍ली श्राकर पू० दिवाकरजीके पास रहने लगा । उनके घर उन्हींके परिवारके एक सदस्यकी भांति मैं रहता उनके पुस्तकालयका उपयोग करता भौर कननड़ सन्त-साहित्यका भ्रष्ययन करता । शिव-शररोंके वचनोंका शभ्रनुवाद करता जहां कहीं कुछ कठिनाई श्राती पू० दिवाकरजीसे पूछता सुबह प्राथ॑नाके बाद सूत कातते-कातते मु वे वचनोंका रहस्य समभक्ाते । कभी-कभी वे मेरे झनुवादित वचनोंको देखकर मस्कराकर मौन रह जाते । एक बार पू० रा० द० रानडे दिल्‍ली श्राये । दिवाकरजी उन्हें गुरु स्थानमें मानते हैं । दिवाकरजीने रानडे साहबसे कननड़ वचनोंके हिन्दी भ्रनुवादकी बात कही । रानडे साहबने मुे बुलाया भनुवादित वचन सुनानेकी श्राज्ञा दी झाषे




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