अग्निचयाना | Agnichayana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९ ; गया । इंटों के प्रथम प्रस्तार में प्रो० शर्मा को उखा मिल गयी, अषाढा ईंट मिल गई, द्वियजुष्‌ नामक ईंट भी मिल गयी; पर रुवम एवं हिरण्मय पुरुष नहीं मिला, जिसका अग्निचयन में सर्वातिशायी महत्त्व है और जो प्रतीकीय अर्थवत्ता की दृष्टि से सर्वश्रेछ है। ध्यातव्य हैं कि रुकम में स्थित हिरण्मय पुरुष अग्निचयन की आधारदिला है । इस आधारदिला के अभाव में कौद्षाम्बी में अग्निचयन की इयेनचिति का अन्वेषण आकाशप्रसून के समान है । प्रो० शर्मा जिस हॉड़ी को उखा के नाम से पहचानते हैं , वह वैदिक ग्रन्थों में वर्णित उखा के लक्षणों से रहित है* । उसमें न तो मेखला दुष्टिगत होती है और न ही उसमें स्तनों के चिह्न ही हैं। मेखला एवं स्तनों के मध्य में, मध्यभाग से मुखभाग तक बनी हुई चारों दिशाओं में चार मृतु-वर्तिकाएँ भी नहीं गोचर होतीं । प्रो० शर्मा ने अपने ग्रत्थ में उखा का जो छाया-चित्र दिया हैं, उसे देखने से ज्ञात होता है कि उसका मुखभाग किसो अन्य हाँडो का है तथा उसका अधोभाग किसी अन्य हाँड़ी का | दो भिन्न पात्रों के दो अवयवों को जोड़कर उखा की पहचान नहीं की जा सकती | वेदिक-ग्रन्थों के उद्धरणों का आश्रय लेने वाले प्रो० शर्मा से सम्बन्धित वैदिक लक्षणों की, जान-बूझ कर उपेक्षा करते हैं । प्रो० शर्मा के अनुसार अग्नि-चिति दक्षिण-पूर्वाभिमुखो है और वह प्राकार के चरणदेश में वर्तमान है* । अग्निचयन अथवा किसी भी यज्ञ की महावेदि पूर्वाभिमुख होती हैं। यज्ञ नगर के बाहर विस्तृत भूमि में ही सम्पन्न किये जाते थे । महावेदि तथा महावेदि के पश्चिम में प्राचीनवंश (शाला) के लिये पर्याप्त भूमि की भावश्यकता पड़ती थी । जिस स्थिति में प्रो० शर्मा अग्निचयन को अवस्थिति बताते है, उसमें भग्निचयन का होना सर्वथा असम्भव है। प्रो० दार्मा को वहीं एक लौहसंरचित सर्प भी मिला है* । केवल तैत्तिरीयसंहिताब्राह्मण में सर्प के सिर का आधान प्रथम चिति में बताया गया है । अन्यत्र सवंत्र सर्प-मन्त्रों के द्वारा केवल उपस्थान का उल्लेख मिलता है ।. लौह-सर्प के उपघान का कोई साक्ष्य वैदिक-ग्रत्थों में उपलब्ध नहीं होता । प्रो० शर्मा की स्थापना है कि कौशाम्बोी में पुरुषमेध यज्ञ किया गया था और उसी में इयेनचिति की संरचना की गयी थी* । शुक्लयजुर्वेदीय शाखा में सुपणंचिति जी० आर० दार्मा, ए० कौ० फलक ३२ ए। द्र० इस ग्रन्थ का द्वितीय अध्याय । जी० आर० दार्मा, तदेव, पृ० ८७ । तदेव, आकृति १८,४ | तै० सं० ब्रा० १.२.९.५--सपंद्यीष॑मुपदधाति । श० ज्ा० '७,४.१.५--स्पनामंरुपतिष्ठते; तु० का० सं० ब्रा० तदेव; मै० सं० ब्रा० तंदेव । ७. जी० आर० दार्मा, ए० कौ० अध्याय ८ । दर 5६ दस पे टू?




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