पूर्व एशिया का आधुनिक इतिहास खंड - २ | Purva Asia Ka Adhunik Itihas Khand- 2

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Purva Asia Ka Adhunik Itihas Khand- 2 by पद्माकर चौबे - Padmakar Chaubeहेराल्ड एम. विनाके - Herald M. Vinake

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संचरिया पर जापान का प्रभाव ५६९ देशमक्त समितियों के जिनकी संख्या बढ़ती जा रही थी उपायों के प्रति सहिष्णुता की भावना प्रकट करने के पीछे भी व्यक्तिगत स्वार्थ था । लेकिन इस प्रचार तथा आतंक- वादी प्रवृत्ति के लोगों के उद्देश्य को दृष्टि से ओझल कर देना ठीक न होगा । उन्हें वास्तव में राज्य के कल्याण की चिन्ता थी । भ्रष्टाचार-कांडों में ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन अधि- कारियों को ग्रस्त देखकर हर देशभक्त यह अनुभव करता था कि शासन-व्यवस्था में कहीं-त-कहीं गड़बड़ी है । भ्रष्टाचार के कई कांड तो प्रकाश में आने ही नहीं पाते थे । इन उच्च-पदस्थ अधिकारियों का इस प्रकार के कांडों में प्रकट हाथ होने से युवक अधि- कारियों को सेना का नियंत्रण पाने में सुविधा प्राप्त हुई । दूसरी सुविधा उन्हें यह थी कि वे अपने लाभ के लिए उद्योगपतियों से एका करने को तत्पर थे । इस प्रकार देश भक्ति- पूर्ण और हृदयस्पर्शी प्रचार करने के लिए आधार बन गया था । अभी ऊपर जिस व्यक्तिगत हित का उल्लेख किया गया है उसका पता इस बात से लगता है कि १९२२ के बाद के वर्षों के बजटों में थल-सेना तथा नौ-सेना को कम महत्त्व दिया जाता रहा । नौ-सेना के मामले में वार्शिंगटन सम्मेलन के समझौतों के आधार पर उसका व्यय न बढ़ाने का एक उचित बहाना था। अन्तर्राष्ट्रीय समझौते के जरिये नौ- सेना का प्रसरर इस प्रकार सीमित रखने की अवधि १९३० के लंदन समझौते के आधार पर बढ़ायी गयी । लेकिन जब इस समझौते को अनुसम्थन के लिए डाइएट के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो नौ-सेना के युवक वर्ग ने इसका जबदेस्त विरोध किया । ये दोनों समझौते दलीय सरकारों द्वास किये गये थे जो इसके फलस्वरूप विनियोगों में कमी के लिए भी उत्तरदायी थे । यही बात सेना के विनियोगों में भी होने की संभावना उत्पन्न हो गयी । मिनसीटों सरकार का कार्यक्रम यह भी था कि और कोई ऋण लिये बिना ही बजट का संतुलन किया जाय । नौ-सेना का व्यय अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों के आधार पर स्थिर कर लिया गया था । आन्तरिक दशा को देखते हुए सहायता तथा अन्य नागरिक प्रयोजन के लिए किये जाने वाले व्यय को कम करना सम्भव नहीं था । कर पहले से ही बढ़े हुए थे । व्यय कम करने का सबसे अच्छा अवसर सैनिक बजट में मिला । इसका औचित्य उन वार्त्ताओं के आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता था जो शस्त्रास्त्रों में सामान्य रूप से कमी किये जाने के लिए हो रही थीं । दूसरे शब्दों में इन सब बातों के फरस्वरूप प्रतिरक्षा सेवाओं का कुछ हृद तक सिमटना अनिवाये था । इसका अर्थ यही था कि जो अधिकारी पहले से ही थल-सेना और नौ-सेना में थे उनके आगे बढ़ने के अवसर सीमित हों जायें और इस प्रकार उनके आगे बढ़ने की उच्चाकांक्षाओं में बाघा पड़े । व्यक्तिगत हित और देश भक्ति के इन उद्देश्यों का बड़ी सरछता से विदेश नीति से




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