शैली और विधाओ का विकास | Shaili Aur Vidhao Ka Vikas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.62 MB
कुल पष्ठ :
138
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्र हिन्दी गदय-शली भर विधाओा का विकास कर नी झाकृतियाँ उभरनें लगीं । यह नया वर्ग था मध्यवर्ग जिसमें भविष्य की सहत्त्व- पुर्ण---अपूर्वाशित्त संभावनाएँ छिपी थीं । दा यह वर्ग मनस भर अर्थतः दोनों दुष्टियों से भारतीय जीवन के लिए अभूतपूर्व था । बस्तुतः प्राघुनिक साहित्य इसी सध्यवर्ग कीं तिलमिलाहुट की देन हैं । मानसिक दृष्टि में सत्यंत संवेदनशील सौर ग्रर्थ-दुष्टि से विपन्त इस वर्ग के अलुभव विविध थे इसकी दृष्टि अधिक पैनी शौर गहरी थी । इसके पीछे मंगरैजी शिक्षा का कम मजचव नहीं है। जंगरेजी शिक्षा का प्रसार यद्यपि भिन्न दृष्टि से किया गया था-- मैकाले के म्रसुसार सौकरशाही वर्ग की स्थापना के लिए--पर्तु यह स्वीकार करने में कोई व्यवधान नहीं है कि अँगरेजी दिक्षा ने हमारी जा ति की गति को शऔर भी स्वरा दी। दैसे कुछ बिचारक ऐसे भी हैं जिनके अनुसार यदि अँगरेज भारत में न झायें होते तो भी यह आधिक झ्ौर सांस्कृतिक क्रान्ति भारत में श्रव्य होती रजनी पाम दत्त ने तो यहाँ तक कहा कि हमारे देश में व्यवसाय उद्योग-घस्धे श्रादि काफी गति से फैल रहे थे किन्तु अँगरेजों ने उनका नाश करके हमारी सामाजिक प्र झ्रा्थिक उत्नतिं में एक भारी व्यवधान पैदा कर दिया । (--उध्ा8 10689. परननु इसमें उतनी सचाई नहीं है । कारण यह कि अँगरेजों के कारण जिस यंत्र-युग का जिस राजनीतिक चेतना का जिस ऐक्य का हम श्रनुभव कर सके स्वाभाविक गति से भ्रान्ति-ग्रनुक्म में उस स्तर पर भ्राने में हमें एक शताब्दी झर लग जाती । अस्तु मंगरेजी डिक्षा का महत्व भारतीय जागरण में वही है जो किसी महान क्रान्ति में तात्कालिक उपक्रम (पांएंघपिं0हा) का होता है । अँगरेजों ने अंगरेजी के माध्यम में हजारों चर्षों के अपने श्रनुभव -ज्ञान हमारे लिए मुक्त कर दिये । शत यह निर्णय कर सकना कि हमारी विचारधारा एवं जीवन-पद्धति में भारतीय कितना है झौर बँदेशिक कितना उतना ही कठिन है जितना यह निर्णय करना कि हमारे रक्त में कितना प्रार्य है और कितना भ्रार्येतर । झतः हम यह स्वीकार करते हैं कि हमारी बर्तमान जीवन-पद्धति बहुत कुछ अंगरेजों की देन है । अंगरेजी शिक्षा ने हमें कित परम्पराओं से परिच्चित कराया इसका संक्तिप्त निर्देश हम पुर्व ही कर झाये हैं । यहाँ मध्यवर्ग की मस स्थिति की कुछ चर्चा झावश्यक होंगी । जिस सांस्कृतिक पुन ल्यांकन की चर्चा हम पहले कर भ्राये हैं उसका सुत्र- घार यहीं मध्यवर्ष है । यह मध्यवर्ग मनस एवं अथेत संघर्षशील हैं। मानसिक दृष्टि से संस्कार एवं सयीं उपलब्धियों का संघर्ष तथा झर्थतः श्रस्तित्व के लिए संघर्ष से इसका व्यक्तित्व निर्मित है 1 इस प्रकार के गतिशील वर्गीय चरित्र की श्बतारणा भारतीय जीवन में श्रसूतपुर्व धटना थी 1 फलत मध्यव्गे की ग्रहणश्लीलता श्रस्यन्त तीर थी । इसने परम्परा को नये ढंग से स्वीकार किया । युग सत्य भी इसके लिए
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