महादेवी वर्मा साहित्य ;कला, जीवन - दर्शन | Mahadevi Varma Sahitya; Kala, Jeevan - Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ श्र तेले के कई धब्बे वाल्ति तकिये के साथ मैंने जिस द्यनीय मूर्ति से सासत किया उसका ठीक चित्र दे सकना संभव नहीं है । वह अठारह से अधिक की नहीं जान पड़ती थी दुबेल और अस- हाय जैसी । सूखे ओठ वाले साँवले पर रक्तह्दीनता से पीले मुख में आँखें ऐसे जल रही थीं जेसे तेल-हीन दीपक की बत्ती । और एक दिन याद आता है । चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जारहा था। निन्‍्दा के नन्द्दे-नन्हे हाथों ने दूध की पतीली उतारी अवश्य पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर पैरों पर गिर पढ़ी | खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर स्ड़ी बिन्दा का रोना देख मैं तो हृतबुद्धि सी हो रही । पंडिताइन चाची से कहकर वह दवा क्यों नहीं मंगवा लेती यह समभना मेरे लिये कठिन था | उस पर जब बिन्दा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए दृद्य से लगा कर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी तब तो मेरे लिये सब कुछ रददस्यमय हो उठा । ( अतीत के चल चित्र प्रप्ठ ६४-३६ ) वतंमान सामाजिक कुप्रणाल्नियों तथा कुरठाओं पर इतना कट आघात कहीं-कहीं पर महादेवी जी ने किया है कि पाठक तिल- सिला कर रद्द जाता है.। यथाथ की ठोस भूमि पर जब लेखनी चलनी है तो उसमें अनुभव की गहराई होती है आत्म-विश्वास की सक्रिय सजगता निवास करती है उसमें एक टीस होती है एक उत्पीड़न रहता है. तथा साथ में रहती है उसके मिठास और एक चिरन्तनता साँस लेती नज़र आती है. । इसी सलज और कतंब्यनिप सबिया को लक्ष्य करके जब एक परिचित वकील पत्नी ने कहा -- झाप चोरों की औरतों को क्यों नौकर रख लेती हैं? तब मेरा शीतल क्रोध उस जल के समान दो उठा जिसकी तरलता के साथ मिट्टी ही नहीं पत्थर तक काट देने वाली धार भी रहती है । मुँद् से अचानक निकल गया -- यदि दूसरे के धन को किसी . न किसी .प्रकार. अपना बना लेने का नाम




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