वेणी संहार नाटक | Veni Sanhar Natak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९४ में भी अपने इस महान्‌ प्रवन्ध की अमरता की कामना थी । सट्रनारायण कवि के रुप मे--भट्टनारायण ने अपने नाटक वेणौसंहार में किसी एक रीति का अनुसरण न करके भाव और परिस्थिति के अनुसार गोंडी और बचदर्भी दोनो रीतियो का उपयोग किया है। यद्यपि अनेक आलोचकों ने कथावस्तु की शिथितता और सवादों की नीरसता तथा उनकी भाषा की क्लिष्टता के कारण वेणीसंहार की कट आलोचना की है परन्तु उसके कवि- पक्ष की श्लाध्यता के विपय में सभी एकमत है । भट्टनारायण के काव्य मैं ओोज शक्ति गति तथा प्रभावोत्पादकता है । उसकी भाषा मे वॉकापन है जिससे वह भाव और रस के अनुरूप ढल जाती है । भट्टनारायण वीर वीभत्स करुण और शूद्धार रस की अभिव्यक्ति में पूर्ण रूप से सफल रहा है। वीररस से उसकी पदयोजेना समासबद्ुल और ओजपूर्ण है । भट्गनारायण की एक अन्य विशेषता यह है कि वह ध्वनि और अर्थ की योजना की कला में निपुण था । उसकी अक्षरयोजना भाव के अनुरूप होती है। चदचदुभुजश्नमितचण्टगदाभिघात इत्यादि श्लोक में सयुक्त भक्षरो की योजना भीम के क्रोध और उत्साह को प्रकट करने मे सर्वथा सफल रही है । इसी प्रकार मन्यायस्तार्णवाम्म इत्यादि श्लोफ में अक्षरों की योजना ऐसी है कि पाठक को दुस्दुभि के बजने की अनुभूति होने लगती है । / भट्टतारायण ते छत्दों का भी समुचित प्रयोग किया है । कुरु घनोर पदानि शर्न शनें र२/२० में द्रुतविलम्बित अदवायां रणसुपग्ती इत्यादि शिशु में मन्दाक्रात्ता तथा ममहिवयसा दरेणालप इत्यादि ६/२४ में हरिणी खुद का प्रयोग परिस्थिति और भावों की प्रभावपूर्ण॑ अभिव्यक्ति में अत्यधिक सहायक हुआ है । +भट्टनारायण ने अनेकविध अलद्धारों का भी समुचित्त प्रयोग किया है । साभिश्ाय पदों और काकू के प्रयोग के लिये भट्टनारायण विशेष रूप से १. काव्यालापसुभापितव्यसनिनस्ते राजहंसा गता-- स्ता गोप्ठ्य. क्षयम गता गुणलवश्लाध्यास्तु वाच सतामु । सालद्धाररसप्रसत्नमघुराकारा कवीनां गिर माप्ता नाथमयं हु भरूमिवलये जीयात्मवन्धों महानु ॥




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