सरल मनोविज्ञान | Saral Manovigyan

Saral Manovigyan by बाबू कुन्दनलाल गुप्त - Babu Kundanlal Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आरम्भिक ॥ पढ़ती है ओर कोई टांग कहीं । टाँग रखता कैरी है और पढ़ती कहीं हैं। कहता कुछ है और निकऊता कुछ है । मर्स्तिष्कके एंक मंगिकी नाम मोडलाओ- व्ोंगेटा है। इसका व्यापार परमावश्यक है । इसको हानि पहुँचनेसे हृदय और फेफड़े स्वकार्य्य छोड़ देते हैं और मृत्यु तत्काठ आ उपस्थित होती है । मास्तिष्कमेंसे ज्ञानतन्तु जिनको मज्जातन्तु भी कहते हैं निकठ कर कुछ साँघे ओर कुछ रीड़की हड्डी द्वारा समग्र शरीरमें फेठ जाते हैं । ये तन्तु दो दो अर्थात्‌ जोड़ेसे रहते हैं । एक तन्तु बाह्य वस्तुओंके प्रभावको मस्तिष्क तक पहुँचाता हैं जहाँ उस प्रभावका संवेदन उत्पन्न होता है । दूसरा तन्तु मस्तिष्कसे जो आज्ञा होती है उसको निर्दिष्ट स्थान तक ले आता है । यथा मेरी अंगुली पर किसीने सुई चमभाई । एक तन्तु इस चुभनेके प्रभावको मस्तिष्क तक छे जाता है वहाँ इसका संवेदन दु खरूप प्रतीत होता है और दूसरा तन्तु जिसका कार्य्य मस्तिष्कसे आज्ञा छाना है आज्ञा ठाता है कि अंगुली हटा लो और मांसपेशियोंकि तनावके कारण अंगुली सुई परसे झट हट जाती है। इस प्रकार मनकों बाह्य संसारका ज्ञान होता है और बाह्म संसारका प्रभाव मन पर पढ़ता है । मानसिक शक्तिर्योको पुष्ठ और विकसित करनेके हेतु शक्तियोंका निरन्तर उपयोग करते रहना आवश्यक है । उपयोगहीन वस्तु निर्बलठ होकर नष्ट अ्ष्ठ हो जाती है । यथा फकीरोंका ऊर्ध्व बाहु सूखकर कार्य्य- हीन बन जाता है और छुहारका एक हाथ बठवान्‌ हो जाता है । मनुष्य- झक्तियोंका विकास और संवधन ३५ वर्षकी अवस्था तक होता है । तत्पश्चात्‌ मन कोई नवीन पद्धति स्वीकार नहीं करता । यही कारण है कि प्रत्यक्ष सत्य बातकों भी जो नर्वीन सिद्ध हुई हो व्रृद्ध पुरुष स्वीकार नहीं करते और अपनी पुरानी ठकीरके फकीर बने रहते हैं । हम प्रतिदिन देखते हैं कि भाषा वेश आदिमें परिवर्तन आने पर भी ब्रृद्ध ठोग अपनी पुरानी चाठ पर ही चलते रहते हैं । ष




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