साहित्यशास्त्र का पारिभाषिक शब्द - कोष | Sahityashastra Ka Paribhashik Shabd - Kosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अनुकत्ता द कहने से उपनन श्रर्थदोध (दे० यथा०) जैसे-- तुम्हारी नाभि भंवर ही है नेत्र नील कमल हैं वलय लहरें हैं इसलिए तुम लावश्य की बावड़ी हो यहां भंवर ही है? में ही यह नियम वाच्य न था । इसी प्रकार वाच्यनियम के न कहने पर भी यह दोष होता है | अनुक्ता--नाटक मैं झभिनेता । रस से सम्बन्धित चार व्यक्तियों में एक | विशेष दे० रस | अनुकूल--श्रनुकूलं प्रातिकूल्यमनुकूलानुबंधि चेतु ।--साहित्यदपंण एक झथालंकार जिसमें प्रतिकूलता दही श्रनुकूलता का काम करती है | जेसे-- हे तन्वि यदि तू छुपित है तो इस (नायक) की देह में नखक्तत कर इसे भुजपाथों में सुददढ़ रूप में बाँध दे । बिलक्षण चमस्कार के कारण इसे श्रलग श्रर्थालंकार माना गया है | अनुकूल--श्रनुकूल एकनिरत ।--साहित्यदपंण जो नायक एक ही नायिका में श्रनुरक्त रहे उसे श्रनुकूल नायक कहते हैं । इस प्रकार के नायक की सर्वश्रेष्ठता सदेव मान्य रही है यद्यपि वह श्छ गार रस का श्रालंबन उतना अच्छा नहीं बन पाता है जितने अन्य प्रकार के नायक । अनुकूला--भा त न गा गा कहिं अनुकूला भगण तगण नगण श्रौर दो शुरू से बनने वाला त्रिष्टपू जाति का समदत्त छुन्द | अनुक्तसिद्ध--नाटक मैं रसपोष के लिए प्रयुक्त होने वाले ३६ नाटक-लक्षणों में से एक । विशेष दे० नाटक-लक्षण । अनुगण-एक अर्थालंकार जिसमें निकटता के कारण किसी के स्वाभाविक गुण में बृद्धि दोती है जेंसे-- सज्जन फल देखिय ततकाला । काक होंहि पिक बकहू सराला ॥ पर इसमें युण-दृद्धि हो जाने से उल्लास श्रलंकार भी झा जाता है | अनुचिता्थव्व--श्रनुचित झूथ बताने वाले शब्दों के प्रयोग से होने वाला दोष (दे० यथा ०) । जैसे-रणयज्ञ में पशुभूत लोग अमरता पाते हैं यहाँ पशु में शरों की कातरता की व्यंजना होने से यह दोष है। अनुज्ञा--एक झथोलंकार जिसमें दोष रूप से प्रसिद्ध किसी पदाथ की भी किसी चमत्कारपूरण गुण-विशेष के कारण उपादेयता बताई जाती है । जैसे-- (१) दुख से भी जाऊ मु उससे है मसता । बढ़ती है जिससे सहानुभूति समता ॥--मै० दा गुप्त




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