प्राचीन भारत में कृषि - व्यवस्था - प्रारम्भिक काल से ६०० ई. तक | Prachin Bharat Me Krishi Vyavastha Prarambhik Kaal Se 600 A. D.

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पुर्नेश्वरी द्वेवदी - pureneshwari dwivedi

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प्रो. बी. एन. एस. यादव - Pro. B. N. S. Yadav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कह सकते हैं कि प्राचीन वैदिक युग से मूमि का समायानुसार विभिन्‍न प्रकारों में विमाजन किया गया है और महाकाव्यों एवं अर्थशास्त्र में नवीन मूमि को कृषि योग्य बनाने की परामर्श दी गयी है | 2. मू-स्वामित्व मूमि के प्रकारों का विवेचन करने के पश्चात्‌ एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि भूमि पर किसका अधिकार था । मू - स्वामित्व के प्रश्न पर इतिहासकारों ने तीन प्रकार का मत व्यक्त किया है और तीनों मतों के पक्ष में तत्सम्बन्धित ग्रन्थों में पर्याप्त प्रमाण मी मिलते हैं । कुक विद्वानों के अनुसार भूमि पर राजा का स्वामित्व था जबकि कु इतिहासकारों के अनुसार भूमि पर व्यक्ति या समूह का स्वामित्व होता था| प्राचीन काल में कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि मूमि पर सम्मिलित स्वामित्व होता था। पाश्चात्य इतिहासकार कैम्पबेल और मेन के मतानुसार मूमि पर स्वामित्व पारम्परिक ग्राम बिरादरी का था । एच. एच. बिल्सन ने मी भूमि पर सामूहिक स्वामित्व के आस्तित्व को स्वीकार किया है डर मारतीय विद्वान डॉ0 सौकलिया ने सन्‌ 181 ई0 के एक क्षत्रप अमिलेख में रसोपद्रग्राम की चर्चा की है। उपरोक्त विद्वानों के उल्लेखों तथा समकालीन अन्य ग्रंथों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि वैदिक युग में भूमि पर व्यक्तिगत और सम्मिलित स्वामित्व का विकास क्रमबद्ध रुप में हुआ । उस समय आर्य मारत में आकर अपना विस्तार कर रहे थे तथा विभिन्‍न प्रकारों से भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार के अतिरिक्त समहों में बँटे रहने के कारण भूमि पर उनका समूहगत अधिकार मी था । इस मत का समर्थन मजूमदार भी करते हैं | इस प्रकार भू - स्वामित्व के विकास में सैंद्वान्तिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों का योग रहा | सिद्धान्त रुप में तो भूमि पर राजा का स्वामित्व दिखाई पड़ता है क्योंकि राजतंत्र के उत्कर्ष के कारण साम्राज्य का विस्तार हुआ और साथ - साथ विजित मू - भाग पर उसका अधिकार स्थापित हुआ। समय - समय पर उसमें मूमि तथा गाँव आदि ब्राहमणों विद्वानों मन्दिरों और बिहारां आदि को प्रदान




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