पातंजल योग दर्शन के विशेष परिप्रेक्ष्य में आधुनिक योगाचार्यों के मतों की समीक्षा | Patajal Yog Darshan Ke Vishesh Pariprechhey Mein Aadhunik Yogacharyo Ke Mato ki Smiksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(7) उक्त श्लोकों का अर्थ है कि जिस प्रकार से सर्पों के राजा ( शेषनाग के अवतार पजज्ज्लि ) ने शब्दानुशासन (महाभाष्य) योगसूत्र तथा वैद्याकशास्त्र की रचना करते हुए वाणी चित्त तथा शरीर के मलों के शोधन किया था उसी प्रकार जिस रणरड्गमल्ल राजा (भोज) ने. व्याकरणशास्त्र पातज्ज्ल-योगशास्त्र तथा. वैद्यकशास्त्र राजमृगाडुक नाम वृत्ति की रचना करते हुए उक्त तीनों प्रकार के मलों (दोषों) को दूर कर दिया है उनके उज्जवल वचन सर्वातिशायी है। स्पप्ट है कि राजा भोज को महाभाष्यकार पतज्जलि तथा येगसूत्रकार पतज्जलि की अभिन्‍नता में काई सन्देह नहीं है। चरक सहिता के टीकाकार चक्रपाणिदत्त (11 वी शताब्दी ई0) पतज्जलि का इन तीनों ग्रन्थों के रचयिता रूप में प्रमाण करते है - पाजज्जलमहा भाष्यचरक प्रतिसस्कते । मनोवाक्कायदोषाणा हन्त्रेडहिपतये नमः । । वैयाकरणनागेश (16 वी शत्ताब्दी ई0 ) अपने ग्रन्थ वैयाकरण सिद्धान्त-मज्जूषा में पंतज्ज्लि को उक्त तीनों ग्रन्थों का रचयिता मानते है। क. तदुवक्त चरके॑ पतल्जलिना । सेन्द्रिय चेतन द्रव्य निरिन्द्रियिमचेतनम्‌। ख. आपतो नाम अनुभवन वस्तुत्वस्य कार्त्सन्यन निश्चयवान्‌ . रागदिवशादपि नान्यथावादी य स इति चरके पतज्जलि (वैययाकरणसिद्धान्तमज्जुषा पृ0 12) ग. योगसूत्रे पत जल्युक्ते महाभाष्य पस्पशा उद्योतत पृ0 58 रामभद्र दीक्षित (18 वी शताब्दी ई0 ) स्वरचित पतब्ज्लिचरित में पजज्जलि की वन्दना इस रूप में करते है - योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मल शरीरस्य च वैद्यकेन। यो पाकरोत्त प्रवरं मुनीना पतथ८जलि प्राथ्जलिरानतो5स्मि। । प्राचीन शैली से पठन पाठन की परम्परा का अनुसरण करने वाली सस्थाओं में आज भी महाभाष्य का पाठ आरम्भ करने से पूर्व अधोलिखित मंगलपाठ किया जाता है - वाक्यकारें वररूचि भाष्यकारं पतज्ञजलिम्‌| पाणिनीं सूत्रकार च प्रणतोइस्मि मुनित्रयम्‌।। योगेन चित्तस्य पदेन वाचा मल शारीरस्य च वेद्यकेन। कक जे योडपाकरोत प्रवर मुनीनां पतंजलि प्राजलिरानतोअस्मि। ।




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