लिखि कागद कोरे | Likhi Kagad Kore

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Likhi Kagad Kore by अज्ञेय - Agyey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राय उस हँसी में खो जाता था । मुफे इस हंसी का बहुत बुरा लगता था--क्यों कि मैं तो उन की लिखी हुई किताब देख कर कभी नहीं हूंसता था फिर मैं ने हाथ से लिख कर एक पत्र निकाला उस का नाम था आनन्द-बन्धु । इसे कोई चार साल तक चलाया । श्रौर देखिए--यहू सपना भी मेरे साथ ऐसा चिपटा कि अब काम के नाम पर कुछ सोचता हू तो किताब लिखने की या पत्रिका निकालने की । श्रौर यही सपना देखते-देखते लेखक श्रौर सम्पादक बन गया हूँ। (और कभी इस काम से छूट्टी पाता हू तो घुमक्कड़ी के लिए या घुमक्कड़ी के सहारे--यानी एक सपने से उबरता हू तो दूसरे में जा . उलभता हु 1 ) मैं ने कहा न सपनों में बड़ी ताक़त होती है ? श्रौर लिखने में भी सोचता हूँ कि जो लिखा वह जब लिखा तब तो श्रच्छा ही समभक कर लिखा पर सब से श्रच्छी किताब तो वह होगी जो अब लिखुंगा ठीक वेसे ही जैसे मेरा सब से भ्रच्छा सपना वह है जो मैं झ्रभी देखने वाला हूँ--श्रौर बचपन से ही बस श्रभी-भ्रभी देखने की उमंग में चला श्राया हूं




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