श्री महाराज हरिदास जी की वाणी सटिप्पणी | Sri Maharaj Haridas Ji Ki Vani Satippadi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र इन चारों महंतों ने भी श्रपने-म्रपने चार पंथ प्रतिष्ठित किये । उन्होंने इन चारों पंथों में से जगन वाले को श्रागे निरंजनी पंथ के नाम से ग्रभिह्ठित किया है उसके द्वादश प्रमुख महंतों के नाम दिये हैं तथा उनके निवास स्थानों श्रौर उनकी कुछ विशेषताग्रों तक की श्रोर संकेत किया है । उनका कहना है कि ये बारहों महंत कबीर के भाव की रक्षा श्रथवा उनके मत का समधन करते थे जिस कारण इन्हें उनसे म्रधिक भिन्न भी नहीं कहा जा सकता | परन्तु राघोदास द्वारा दिये गए निरंजनी संप्रदाय के इस परिचय से हमें पुरा संतोप नहीं होता । इससे न तो उक्त बारह निरंजनी महापुरुषों के जीवन-काल पर ही फोई प्रकाश पढ़ता है न उनके पारस्परिक सम्बन्धों का पता चलता है भौर न यहीं ज्ञात हो पाता है कि उनकी रचनाएं कौन-कौन थी श्रथवा श्रपने पथ के संगठन श्रौर विकास के निरमित्त उन्होंने कितना तथा किस रूप में कार्य किया । इसके सिवाय मूल भक्तमाल अ्रथवा उसकी टीका के म्रस्तर्गत जिस प्रकार स्थल निर्देश किया गया है उसके सहारे किसी भौगोलिक संगति का बिठाना सरल नहीं है श्रौर न यहां पर प्रस्थ भी कोई ऐसी बात पायी जाती है जिस से किसी ऐतिहासिक तथ्य की छान बीन का प्रयत्न किया जाय । उपयुक्त जगन दाब्द स्वभावतः किसी ऐसे व्यवित विशेष का नाम होना चाहिए जिसे इस पंथ के प्रवर्तन का श्रेय दिया जा सके किन्तु उपलब्ध सामग्री के श्राघार पर हमारे लिए इस प्रकार का निश्चय करना भी प्रायः ग्रसम्भव- सा ही प्रतीत होता है । इसी प्रकार निरंजनी संप्रदाय के संबंध में लिखने वाले एक प्रन्य लेखक स्व० बडथ्वाल रहे हैं जिन्होंने इसके उपलब्ध साहित्य का श्रध्ययन क्ररके उसके श्राधार पर इसके सिद्धांत एवं साधना के विषय में श्रपना मत प्रकट किया है । डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ( सं० १६४५८-२००१ वि० ) संत-साहित्य के विशेषज्ञ थे और उन्होंने इस विषय के हो श्राघार पर श्रपनी दि निणु ण स्कूल म्राफ हिन्दी पोएट्री नामक थीसिस तैयार कर उसे काशी हिन्दू विस्वविद्यालय में अपित किया श्रौर वहां से सं० १९९० (सन्‌ १६३३ ई०) में डी० लिट्‌ की उपाधि प्राप्त की थी । यह दोध-प्रबंध सन्‌ १९३६ ई० में श्रपने मूल भ्रंग्रेजी रूप में. प्रकाशित हुम्रा ग्रौर उसकी प्रस्तावना में डा बड़थ्वालने निरंजनी संप्रदाय के सबंध में ग्रपने कुछ विचार प्रकट किये जिन का बहुत कुछ समर्थन उन्होंने श्रागे चलकर ग्रपने सन्‌ १९६४०ई० के एक हित्दी भाषण द्वारा भी किया । ग्रपनी उक्त प्रस्तावना के श्रंतर्गत उन्होंने बतलाया कि निगुण संप्रदाय ( भ्र्थात्‌ संत परम्परा ) से निरंजनी संप्रदाय प्रायः उसी प्रकार भिन्न ठहराया जा सकता है दरनतततलवावरलपतदानदतताकवतकववतसवनायततयनरातविललवपपतथितततरदमवकवरलतापरपततरयायंतलवमातरतपतकसलपतकतरसिथयमनपरततसापाललापसमसतापालतितलपरतततरसितििेततलेलितलवेवलमललविकिकिलं १. राघोदास की भक्तमाल पथ ३४१ । २ वही पद्य ४२९६-४४ | ३. झब इसका एक हिन्दी भ्रनुवाद भी हिन्दी क्राव्य में नि संप्रदाय के नाम से प्रवधपब्लिशिंग हाउस लखनऊ से सं० २००७ में प्रकाशित हो चुका है? देव नागरी प्रच।रिशी पत्रिका ( काशी ) वर्ष ४४ संवतु ११९७ पृष्ठ ७१-८८ ।




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