अभिज्ञान शकुन्तला नाटक | Abhigyan Shakuntala Natak

Abhigyan Shakuntala Natak by कालिदास - Kalidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पढ़ता अक । १३ ठाका सो ये केसे पीछे भागते को अच्छीतरह देख नहीं पड़ता । सूत-महाराज अबतक ऊँची नीची भूमिथी जिससे मंने घोड़ोंको रोक रोककर चलायेथे। इसीसे ये हिरण दूरनिकलगया । अब आपको बराबर भूमिहोने से वह मिलना कुछ मुशक्रिल न होगा ॥ राजा-तो छोड़ो रास । सृत-जो आज्ञाकरें। (रथ दोड़ाके ) महाराज देखो देखो । छूटतेहि रास पहिली तन जो बढ़ी है नाकंपते उठगये सब के शक भगनेसुंमिट्िमिलगी न उलॉकिती है भगतेद नासहत वेग मगाक घोड़े ॥ ८ ॥ राजा-सत्यह्दे । सूयेके घोड़ों को मात करते हैं रथके घोड़े वैसेही। जृ देखीथी पतली चजति वह मोटीकट अब कटी आधी जो थी वह भी अब सावुत वनगह स्व भावीसि बांकी वह भी अवसीधी नयन को नहीं पास दूर ना कुछ क्षण भर में भागे रथ कुरहां ॥ ६ ॥ सूृत अब इसे मरा देख। ( शरचढ़ाया ) ( नेपध्येमें ) हे राजन्‌ यह आश्रम का शगडे इसे मतमारौ इसे मतमारो। सूत-( सुनके और देखके ) महाराज अब यह आपके वाणुके अ- गाड़ी तो आया परन्तु ये दो तपस्वी मना करते हैं । राजा-(घबराकर) तो घोड़े रोको | सूत-अच्छा (रथ को रोका ) (फिर तपस्वीसदित दोचेले आगे)




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