मेरी जीवन यात्रा | Meri Jiban Yatra

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Meri Jiban Yatra by विद्यानिवास मिश्र - Vidya Niwas Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सस्कृति से अधिक यूरोपीय संस्कृति पसन्द है और भारतीय भाषा से अधिक अग्रेजी भाषा क्योकि वह केन्द्रीय सरकार कीं नौकरियों मे अपने लड़को को भेजना चाहते हैं । मसूरी मे आठ मील लम्बे और दो-ढाई मील चोडे क्षेत्र में प्रति रात्रि दीपमाला जलती टीख पढ़ती है। जगली में भी खम्भी पर बिजली के दीपक सारी रात जलते रहत॑ हैं। यह किसलिए ? क्‍या इनमें विजली खर्च नहीं होती ? उस बिजली का खर्च क्या नागरिकों को देना नहीं पड़ता आधी रात के वाट इन जंगलों मे कौन जाता-आता है जो वहाँ अखण्ड दीवाली जलती है। जाड़ो में जव यहाँ कोई आदमी का प्रूत नहीं रह जाता उस समय किसके लिए यह टीपावली सोचता था 12 बजे रात के बाद यदि विजली वन्द कर दी जाती तो हजारो की बचत होती । जाड़ी में यदि कितनी ही लाइनों को वन्ट कर टिया जाता तो यह पैसा बचता । उस समय तो म्युनिसिपैलिटी का इन्तिजाम जन निर्वाचित लोगो के हाथ में नहीं था यह वहाना था। नेकिन जन-निर्वाचित नगरपालिका के आने पर कितनी ही बार यह बात उनके सामने रखी गई लेकिन किसी के कान पर जूँ तक नहीं रंगी। उन्हें खर्च बढ़ाना पसन्द है कम करना नहीं | मसूरी की स्थिति 1951 के आरम्भ में जो थी आज फरवरी 1956 में वह और भी बुरी हो गई हे । उस वक्त की स्थिति भी यहाँ के लोगो के लिए चिन्ताजनक थी । ग्रीप्स की इन विलासपुररियों की बुनियाद मध्यम चर्ग की समृद्धि और सम्पन्नता पर निर्भर है । उनकी आर्थिक स्थिति की यह थमर्मिट है। जव इनकी हालत बुरी हो गो समझना चाहिए कि मध्यम वर्ग बुरी स्थिति मे हे ओर जव इनमे चहल पहल हाँ तो समझना चाहिए कि मध्यम वर्ग की स्थिति वहतर है । वर्षों से आदमी का मुंह न देखे अच्छे अच्छे बंगला उनके टिनो भर फर्नीचर को टूटते टेसकर ख्यान आता था कि क्या कभी इनक टडिन लोटग | पीछे अक्सर मसरीवाल सवाल करत थ्रे ता मुझ यहीं ज्वाव मुझता था कि तभी जब भारत समाजवादी होगा | हमारे वेंगले से दो ही बंगला को पार करने पर बिडला निवास है । राजसी प्रासाद है । किसी अग्रेज का हमिटेज क नाम से विशाल विलास-भवन था उसी का यह नया नामकरण है । बंगला मिट्टी के मोल भले है मिला हो लेकिन उसका फिर संवारन आर सुधारने में दढ लाख रूपये लगें । ठेकेंटार साहव का 47 हजार अभी वाकी है. जिसव लिए वह रो रहे थे । बडा का कर्ण दना या कर्ज पर काम करना भी कवाह्ट मोल नना है | हमारी साहित्य-याजना मे काम करनेवाले सभी लाग नहीं आए थे । लेकिन दिक्कत सामने आने लगी | कुछ लोग समझते थे कि हम वतन के लिए काम कर रह है काम के लिए नहीं । हमारा यह ख्यन था कि वेतन तो चाहिए पर काम का यान होना चाहिए। अभी काम करत महीने भी नहीं हुए कि वेतन बढाने का सवाल उठा । यह भी कि हम तो दो घटे काम किया करते थे । सोचने लगा क्या मुसीबत पाली ? भला पोॉंच्च घट भी दिन में काम नहीं हा ता क्या बनेगा उनकी दृष्टि से देख तो कुछ और बाते भी सोचने की है। यदि शहर में रहते तो एक दो ट्यूशन मिल जात उसस कुछ आमदनी बढ जाती लेकिन यहाँ जगन मे उसकी क्या आशा हो सकती थी यहाँ मनोविनोट के भी साधन नहीं थ । जा में सनेमा वन्ट रहते और गर्मियों मे भी दो तीन मील उनके लिए जाना पढ़ता । मिलन जुलनेवाले अर्थात बात करनेवाले भी मुश्किल ही से कभी आते और जाड़ी में तो वह भी नहीं काछ़ समय बाद काम करने के लिए और वन्थ भी आए-विनोदजी कुमटठेकर और में मित्र स्वामी सत्यस्वरूपजी । सबसे शिकायत नहीं हो सकती थी लेकिन एक गाड़ी मे जुते सभी घोड़ जब एक तरह ताकत लगाते हें तभी गाड़ी ठीक से चलती है। अगर उनमे एक भी हडताल करने के लिए तैयार हो तो फिर काम आगे नहीं बढ़ता । हमारे एएक सहकारी तो काम की बहुतायत का रोना डा. सत्यकंतु के पास भी राते थ्रे। कहते थे वर्धा मे नो में सिर्फ दो घटा काम करता और 22 घटा आराम करता था। वर्धा में हम ुद्रियां भी मिलती थी यराँ तो छुट्टी भी नहीं है। हम तो भारी शोषक के हाथ में पड़ गए। मुझे कभी स्वप्न मे भी ख्याल नहीं धा कि यह उपनाम मुझे मिलेगा । नागार्जुनजी भी 15 मार्च तके घने आए । जिनका पढ़िने ही से हमारा सम्बन्ध था वह तो उसी तरह काम करने को तैयार थे पर सवाल था टोनी के काम का । मेरी जीवन -यात्रा-5 / 21




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