जी. पी. श्रीवास्तव की कृतियों में हास्य - विनोद | G.p.srivastava Ki Kritiyo Me Hasya Vinod

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G.p.srivastava Ki Kritiyo Me Hasya Vinod by डॉ. दीनदयालु गुप्त - Dr. Deenadayalu Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विनय हास्य के नाम मात्र से जो मुस्कराने को सदैव उत्सुक रहते हैं उनका मैं सत्कार करता हुँ । जो हास्य रस की चर्चा से मुँह बिचकाकर हंसते हैं उन्हें स्मरण रहे कि हास्य की अवज्ञा में भी वे उसका आश्रय ग्रहण करते हैं । सीता जी की तिरछे करि नैव दे सेन तिन्हैं वाली भेदभरी आमोदपूर्ण मुस्कान भी हँसी थी और रंग-प्रासाद में महाभारत-काण्ड की बीज रूप दुर्योधन की. नादानी से उद्भूत द्रौपदी की उपेक्षापूर्ण अघर-भंगिमा भी । हास्य का एकक्षत्र आधिपत्य है उसके निरादर में भी लोग हँसते ही हैं हास्य-रस विषयक जितनी व्याख्या पाश्चात्य देशों में हुई अपने देश में उसकी चतुर्थाश भी नहीं । वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी में हास्य के विश्लेषण का पूर्ण अभाव रहा है। फिर जी० पी० एक पाश्चात्य लेखक से ही प्रेरणा लेकर बढ़े । इस कारण उनकी कृतियों का अध्ययन बिना हास्य के पाश्चात्य सिद्धान्तों के धरातल पर की गई व्याख्या की पृष्ठभूमि के सदेव अपूर्ण रहता । अस्तु प्रथम दो अध्यायों में भारत के विद्वानों के साथ ही विदेशी मत-मतान्तरों का अधिक प्रश्नय लिया गया है । व्यक्तिगत रूप से एवं पत्र व्यवहार द्वारा विचार विनिमय में जी० पी० ने अपना असूल्य समय देकर अपने सहज सौहादें की छाप हृदय-पटल पर सदा के लिए अंकित कर दी है । प्रस्तुत अध गन लखनऊ विश्वविद्यालय की सन १९५६ ई० की एम ० ए० परीक्षा के । 7 स्वीकृत हो चुका है । इच्छा थी कि इधर के सात वर्षों के जी० पी० के साहित्य पर भी कुछ कहा जाये । किन्तु सिबन्ध को यथाधत्‌ अनुसन्धानात्मक _ व॑ आलोचनात्मक सामग्री को प्रामाणिक थीसिस के रूप में सुरक्षित रखने के रण न्यूनतम संशोधन ही सम्भव हो सके । तथापि परि- शिष्ट में कुछ नवीन संकेतों की अनुमति प्राप्त हुई है । निस्सन्देह शोध प्रबन्धों में भावना एवं आत्मीयता का बलिदान करना होता है । तटस्थ भाव से की गई आलोचनाओं में व्यक्तिगत अपनत्व के स्थान




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