यक्षों की भारत | Yakshon Ki Bharat Ko Den

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Yakshon Ki Bharat Ko Den by अरुण - Arun

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका उत्ता आता है। यह लिव्यमणि युचिष्ठिर के कोश मे थी 1 सम्भवत मेणिभद्र पक्ष उसका स्वामी माना जाता था ।. वह वहुत ही लोक भाज में पक्ेश्वर के रुप में कुबेर वा स्थान ले तैता है । रामायण (7 15) मे भी उसना उल्लेय है 1 यस शद का प्रयोग ऋग्वेद अथववेद एवं ब्राह्मणों तथा उपनिपदों मे अनेक मितता है । प्राचोनतर प्रथो में उनके प्रति हघभाव मिलता है एवं ओर उनके प्रति भय और धरणा की भावना है और दूसरी मोर सम्मान की। वे बिक आया के मे मे बाइचय भी पैदा करते हैं और भय भी । कुल मिलावर उनमे प्रति अएचय रहस्यमयता अलौक्किता अजेयता शाटि भावनाएं जुडी हुई हैं। उनके प्रति यह दघभाव भारतीय जनमन में परवर्ती युगो मे बना रहा ओर आज भी बना हुआ है। करवेद में यक्षो को सुदर महान व अदमुत स्वरुप वाला परतु आयों के अप दवताओ से होनतर माना जाता था एक मत्र से कषि विश्वास प्रबढ करता हैं कि जिनकी बुद्धि अविकसित होती है वहीं यक्ष जले अदृभुत आएवयमष ददो मे विश्वास करते हैं। एवं अप मत में अर्ति से अनुरोध निया गया है वि धदि हमारा बोई पडीसी (अनाय जनी पंक्षसदन भे जापे हो हे अग्नि तुम घहाँ छिंपकर मत्त जाना। मर्नि यक्ष से सम्बंध मत रखो हे सवपरत्ति- मान देवता कही हमे यक्ष न मिल जाए यसहपो यस वो देख पाना बयोकि पक्ष बहश्य है --- ऐसे वाकया से भी लगता है कि आय यक्षो से भयभीत रटते थे । लेक्नि इसके साथ यहे भी स्पप्ट है दि वे यक्षों से अत्यधिक प्रभावित भी थे | शस्देर दे एव एच पे बहा णपा है लि चश्वानर ग्नि इतना शक्तिशाली है कि लोग उसे यता का बध्यस मानने लग थे। अथवदेद में एक सह्ातु यक्ष सूप्टि के मध्य जलतार पर तपसविरत उसी म सर देवता निहित जैसे तने भें पेह थी शाधाएं - को चचा है। वृहेदारण्यक उपनिपद्‌ मे कहा गया है कि शो महान दस वो आदिजमा मानता है यह विजय प्राप्त करता है। बिन उपनिषदे से बस रूपी म्रह्म देवताओी का गव खब बरत हैं । सभी उपनिपद्‌ मं भी यक्ष देव- सूची मे गिनाय गय हैं । हि यवथजलि न॑ अपने महाभाष्य मे गुह्ावपति बैश्ववण का कई बार उल्तेण किया है। बहू उसे शिव के साथ लौॉडिक वताओ वी कोटि म रखते हैं और रियो व उमद सण बताते हैं । पिशाचो से पतस्‍्जलि का आशय स्पप्टत यगा से है । वे वश्ववण की प्रतिमाओं का तो उत्लेख करते हो हैं घनपत्ति चाम से उनके झासादा (मिस) वी चर्चा भी वरने हैं जहाँ उपासक थी उपस्थिति से डुमारस्थादी दह्नह 2 दू 1 2. अधदास पुरं० थू 120-21




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