मज्झिम निकाय | Majjhim-nikay

Majjhim-nikay by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द 3 विरोधी हैं । जब वह नित्य है तो कूटस्थ भी है अर्थात्‌ सदा एक-रस रहेगा फिर ऐसी एक-रस वस्तुको यदि परिशुद्ध सानते हैं तो वह जन्म-मरण के फेरमें केसे पढ़ सकती है? यदि अशुद्ध है तो स्वभावतः अशुद्ध होनेसे उसकी मुक्ति केसे हो सकती है ? नित्य कूटस्य दोनेपर संस्कारकी छाप उसपर नहीं पड़ सकती यह दस पहले कह चुके हैं । यदि छापके लिए मनको सानते हैं तो आत्माकों साननेकी ज़रूरत ही क्या रह जाती है ? प्रइन हो सकता है कि यदि सन तथा आत्मा एक है और वह क्षणिक है तो अनेकतामें-- मे पहले था में अब हूँ --ऐसी एकताका मान क्यों होता है? इसका उत्तर है कि समुदायमे एकत्वकी बुद्धि दुनियाका यह सार्वभासिक नियम है । हम संसारकी लिस किसी चीज़को ले ढें समीं हज़ारों अणुओसे वनी हैं जिनके बीच काफ़ी अन्तर है । यह बात छोड़े प्लेटिनम हीरे--सभी ठोस-से-ढोस वस्तुकी है । यदि दसारी इष्टि उतनी सूदषम होती तो दम उन्हें ऐसे ही अछग-अरूग देखते जैसे पास जानेपर जंगछके ब्रुक्ष । इस प्रकार दुनियाके सभी इइय पदार्थोके सूछमें अनेकता होनेपर भी एकताका व्यवहार किया जाता है। अनगिनत टुकडॉंके बने हुए दरीरकों हम एक दरीर कहते हैं । अनेक चुक्षोंके बने जंगठूको एक जंगल कहते दें । अनेक तारोंके झुरमुटकों एक तारा कहते हैं। हाँ एक फ़के ज़रूर है। जड़ाँ रीर वन तारोंमे अंशी और अंद एक कालमे और एक देशमें मोजूद रहते हैं वहाँ मन श्रति क्षण एकके बाद एक उत्पच्न होता रहता है। इसके छिए अच्छा उदा- हरण बनेठी चछते वायुयानका पंखा या चछती बिजलीका पंखा ले सकते है। बनेढीकी रोशनी था पंखेका पंख जल्‍्दी-जल्दी इतने सूक्ष्म कालमें एक स्थानसे दूसरे स्थानपर पहुँचता है कि दम उसे प्रहण नहीं कर सकते भर काछ एक स्वतन्त्र सान बन उसे चक्रके रूपमे छा रखता है । इसी प्रकार सन भी इतना शीघ्र अपनी जगहपर दूसरे सनको उपस्थित कर रहा है कि बीचके अन्तरकों हम नहीं अह्ण कर पाते और हमे चक्की एकताका भान होने छगता है। नदीकी धाराको भीं तो आप एक कहते हैं किन्तु क्या वद्द जल हज़ारों बिन्दुओंसे और बिन्दु अगणित उद्जन ओषजनके परमाणुओंसे और परमाणु अनेक घनतऋण विद्युत्कणोंसे जिनके भीतर चक्कर काटनेके छिए काफ़ी अन्तर है और फिर सूदमतस अनेकों न्यूटरनोंसे नहीं बने हैं ? वस्तुत संसारमे सभी जगद समुदायददीको एक कहा जा रहा है। जब इसारी भाषाका यह एक सार्वेमोसिक प्रयोग है तव क्षणिक मनकी सन्तति न प्रवाह को साधारण दृष्टिसे हम एक कहने लगें तो आश्चर्य क्या है? आाश्वय तो यदद है कि सारी दुनियामे एक कही जानेवाली चीज़ोंको समूहित देखते हुए भी पूछते हैं--समूदित है तो आत्सा क्यों एक सादम होती है ? सवाछ दो सकता है--जब आत्मा क्षणिक है दूसरे क्षण वदद रहता ही नददीं तो उसकी पूर्णता और परिशुद्धि केसे ? उत्तर यह है कि इस सनको क्षणिक मानते हुए मी सनकी सन्ततिकों क्षणिक नहीं सानते । गंगाका पानी उसका आधार दोनों कूल और बालू सभी बराबर बदछ रहे हैं तो भी सबका श्रवाह बना रहता है जिसे इम एक सान गंगा कहते हैं । इसी चित्त-सन्ततिकी परिशुद्धि और पूर्णता करनी होती है । जितनी हो चित्त-सन्तति राग टेप मोदके सछोंसे सुक्त होती है उतना ही उस पुरुषके कायिक वाचिक सानसिक कर्म यरिशुद्ध होते जाते हैं जिसके फलस्वरूप वह व्यक्ति अपने-परायेका उपकार करनेमें समये दोता है । जब उसमें राय-दपका गंघ नहीं रह जाता तो व्यक्तिगत स्वार्थके केन्द्रपर केन्द्रित तृष्णा क्रमश परिवार प्राम देश भूमंडल प्राणिसात्रके स्वार्थकों अपना बना अपनी परिधिको अनन्त तक पहुँचा देती है । उस वक्त अनन्त परिधिवाढी वह तृष्णा बन्धन-रहित हो तृष्णा ही नहीं रद जाती उस पुरुषके लिए निर्वाणका शार्ग उन्मुक्त हो जाता है और वह दुःखके फंदेसे छ्ट जाता है। सुक्ति तक पहुँचनेके किए पुरुषकों निजी स्वार्थकी सीमा पार कर लोकड्ितार्थ सब कुछ




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