संस्कृत व्याकरण दर्शन | Sanskrit Vayakaran Darshan

Sanskrit  Vayakaran  Darshan   by रामसुरेश त्रिपाठी - Ramsuresh Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृत व्याकरणदर्शन की उपलब्ध सामग्री / १७ प्रथम भास्कर के हारा बाक्यपदीय के श्लोक के उद्धृत होते के कारण और प्रथमभास्कर का समय ६२९ ई० निश्चित रूप से शात होने के कारण भवृ हरि के समय-तिर्णय की सत्तर-सीमा ६०० ई० के आगे नहीं लाई जा सकती । अब तक के उपलब्ध प्रमाणों में यह प्रमाण सर्वश्रेष्ठ है। निश्चित रूप में भत्‌ हरि ६०० ई० के पहले हुए थे । अब यह विचार- णीय है कि यह सीमा और कितने पीछे हटाई जा सकती है । जैनाचाये म्लवादि क्षमात्र मण कृत हादशार नयचक्र महाशास्त्र भतु हरि के समय पर प्रकाश डालता है। इस ग्रंथ में भतु हरि के गुरु बसुरात का उल्लेख है। कई स्थानों पर “इति भर हुर्यादि मतम, बसुरातस्य भतु हयू'पाघयस्य मत तु”, एवं तावद मत हरि ब्दानसुक्तभ यत्त, बसुरातों भतु हरेवपाध्याय:” आदि रूप में भतु हरि और उनके गुरु वसुरात के मतों का उल्लेख है । यह ग्रंथ विशेषावश्यक माध्य के पहले का है । विशेषा- बश्यक भाष्य की रचना ५०६ ई० में हुई थी।* इस हष्टि से वाक्यपदीय की रचना ४५० ईण्के पूर्व हुई होगी। मल्लवादि की तरह पुण्यराज भी वसुरात को भवतृ हरि के गुरु मानते हैं ।* थीनी मादा में अदूदित वसुबन्घु के जीवन-वृत्तान्त से यह पता चलता है कि वसुबन्घु और वसु- रात दोनों समकालिक थे और दोनो में शास्त्रायं हुआ था । श्री विनयतोष भट्टाचार्यें के शनुसार वसुबन्धु का समय ३३७-४१७ ई० है।* *ह्व नच्याग और इट्सिंग के अनुसार वसु- बन्धु का समय '४०० ई० के आसपास होना चाहिए । इत्सिंग धमंपाल और धघर्मकीति को बर्वाचीन लिखता है और वसुबन्घु और भसग को मध्यकालिक । * * भतु हरि के वसुरात के शिष्य होने के कारण उनका समय भी ४२४५ ई० के समीप निश्चित होता है । हरिस्वामी ने शतपथ ब्राह्मण की टीका में--अन्येतु शब्द ब्रह्मा एवेद॑ विवतंते८- चंभावेन प्रक्रिया यत इत्याहु: इस रूप में वावयपदीय की प्रथम कारिका का उद्धरण दिया है । हरिस्वामी ने अपने समय का संकेत किया है - शीमतोवत्तिनायस्य विक्रमस्य लिलीदतु: । घर्माध्यक्षे हुरिस्वामी व्याख्या कुबे यपामति: ।। यवाब्दानां कलेजंग्मु: (यवावीनां कलेअंग्सुः) सप्तत्रिदास्छतानि वे । चत्वारिशत्‌ समाइधान्यास्तदाभाष्यमिव कृतम्‌ ॥। इसके अनुसार हरिस्वामी ने ग्रथ की समाप्ति ३७४० कलि वर्ष मे (तदनुसार ६३९ ई० मे) की थी । परन्तु अवन्ती मे उस समय किसी नूृप विक्रम का होना इतिहास से सिद्ध नहीं है। डा० मगलदेव शास्त्री ने पुलकेशी द्वितीय के पुत्र विक्रम प्रथम के अवन्ति के प्रशासक होने की सम्भावना की है (प्रोसीडिग्स एण्ड ट्राजेक्शन्स ऑफ द सिक्स्थ ओरियण्टल दिन्दू विश्वविधालय का झामारी हूँ। -लेखक) ₹०.. द्रष्टव्य : विशाल भारत जून १८४८ में मुनि जम्बू विजय का लेख ३१, बाक्यपदीय २ | ४८, देर, तत्वसंयद की भूमिका शश, इत्सिंग की मारत यात्रा, दू० २७७




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