लोक विभाग | Lok Vibhag

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Lok Vibhag  by पं. बालचंद्र सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Balchandra Siddhant-Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४] लौकबिभागें: हुए अन्तमें संकेत किया गया है कि यह बिन्दु मात्र कथन है, विशेष विवरण लोकानुब्रोगसे जानना चाहिये । ८- अधोलोकचिमाग-- इस प्रकरणमें १२८ श्लोक हैं। यहाँ प्रारम्भमें रत्नप्रभादि सात पृथिवियोंका निर्देश करके उनके पृथक पृथक बहत्यप्रमाणकों बतलाते हुए उनके तलभागमें तथा लोकके बाह्य भागमें जो घनोदधघि आदि तीन वातवलय अवस्थित हैं उनके बाहल्यप्रमाणका निर्देश किया गया है । तत्पद्चात्‌ प्रत्येक पृथिवीमें स्थित पटलोंकी संख्या, उनके बाहल्य व परस्परके मध्यगत अन्तरके प्रमाणको दिखाते हुए किस पृथिवीमें कितने इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीणेक नारक बिल है; इसकी गणितसूत्रोंके अनुसार प्ररूपणा की गई है । साथ ही प्रसंग पाकर यहाँ उन नारक बिलोंमें स्थित जन्मभूमियोंकी आकृति वर विस्तारादि, नारकियोंके शरीरकी ऊंचाई, आयु, आहार, अवधिज्ञानका विषय, यथासम्भव गत्यादि मार्गणायें, शीत-उष्णकी वेदना, छह लेस्याओंमेंसे सम्भव लेक्या, जन्मभूमियोंसे नीचे गिरकर पुन: उत्पतन, जन्म-मरणका अन्तर, गति-आगति, प्रत्येक पुथिवीसे निकलकर पुन: उसमें उत्पन्न होनेकी वारसंख्या, नारकभूमियोंसे निकलकर प्राप्त करने व न प्राप्त करने योग्य अवस्थायें, विक्रियादिकी विशेषता और क्षेत्रजन्य दुखकी सामग्री; इत्यादि विषयोंकी भी प्ररूपणा की गई है । ९. व्यन्तरलोकविभाग-- इस प्रकरणमें ९९ इलोक हैं। यहाँ प्रथमत: व्यन्तर देवोंके औपपातिक, अध्युषित और अभियोग्य इन तीन भेदोंका निर्देश करके उनके भवन, आवास और भवनपुर नामक तीन निवासस्थानोंका उल्लेख किया गया है। इनमें किन्हीं व्यन्तर देवोंके केवल भवन ही, किन्हींके भवन और आवास; तथा किन्हींके भवन, आवास और भवनपुर ये तीनों ही होते हैं । इनमेंसे भवन चित्रा पूथिबीपर; आवास तालाब, पव॑त एवं वुक्षोंके ऊपर; तथा भवनपुर द्वीप-समुद्रोंमें हुआ करते हैं। प्रसंगवश यहाँ इन भवनादिकोंकी रचना व उनके विस्तारादिकी भी प्ररूपणा की गई है । मर डर इसके परचात्‌ यहाँ पिशाचादि आठ प्रकारके व्यन्तरोंके पुथक्‌ पृथक्‌ कुलंभेदों, उनके दो दो इन्द्रों व उन इन्द्रोंकी दो दो प्रधान देवियोंके नामादिका निर्देद करके उन पिशाचादि व्यन्तरोंके वर्ण व चैत्यवृक्षोंका उल्लेख करते हुए सामानिक आदि परिवार देवोंकी संख्या निर्दिष्ट की गई है । इस प्रसंगमें यहाँ अनीक देवोंकी पृथक्‌ पृथक्‌ सात कक्षामोंका निर्देश करके उनके महुत्तरों (सेनापतियों ) का नामोल्लेख करते हुए उन अनीक देवोंकी कक्षाओंकी संख्याका निरूपण किया गया है । व्यन्तरेन्द्रोंकी पांच पांच नगरियां (राजधानियां) होती हैं जो अपने अपने नामके आश्रित होती हैं । जेसे- काल नामक पिज्ञाचेन्द्रकी काला, कालप्रभा, कालकान्ता, कालावर्ता और कालमध्या ये पांच नगरियां । इनमें काला मध्यमें, कालप्रभा पुर्वेमें, कालकान्ता दक्षिणमें, कालावर्ता परिचिममें और कालमध्या उत्तरमें स्थित है । इस प्रकार यहाँ इन नगरियोंके चिस्तारादिको भी दिखलाकर अन्तमें भवनत्रिक देवों में लेदयाका निर्देश करते हुए उन पिशाचादि ध्यन्तरोंमें गणिका महत्तरोंके नामोल्लेखपुवेंक उनकी आयु व दारीरकी ऊंचाई आदिका भी कथन किया गया है । १० स्वगंविसांग-- इस प्रकरणमें ३४९ इलोक हैं। ऊध्वलोकबविभागमें प्रथमंत: भवन- बासियोंके ऊपर क्रमन्त: नीचीपपातिक आदि विविध देवोंके व अन्तमें सिद्धोंके निवासस्थानका




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