गीता अनुशीलन | Geeta Anusheelan
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10.01 MB
कुल पष्ठ :
267
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[११
ग्रघ्याय लगा । पहले श्रघ्याय के १४वें श्लोक से लेकर '४७वें श्लोक तक
लगातार यह राग चलता है । उसी एक राग से निकलकर प्रृथक्-पृथक् दो प्रश्न
हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। एक तो युद्ध में सामने खड़े स्वजनों के ग्रपने द्वारा
मारे जाने का मोह जनित झश्र यस्कर पाप का भाव तथा दूसरा कुल नाश से उत्पन्न
दोपों की विभीपिका से डर कर टूर भागने के निमित्त मरण एवं भिक्षा को श्रेप्ठ
मानने का भाव । दोनों प्रश्नों में से हम पहले का ही चिवेचन यहां विस्तार से
प्रस्तुत करेंगे । दूसरे प्रश्न के उत्तर से सम्बन्धित लेख हम पृथकशः दे रहे हैं--
(१) मोहजनित झाज्जिक झनुभाव--
तान्समीक्ष्य स कौन्तेय: सर्वान्वन्घूनवस्थितान् । १.२७
कृपया परयाविष्टो विषीदन्िंदमब्रवीत् ।
दृप्ट्वेम॑ स्वजन' कृष्ण युयुत्सु समुपस्थितम् । १.२८
सीर्दान्त मम गात्नाणि, मुखं च परिचुष्यति ।
वेपथुद्च शरीरे मे रोमहर्षर्च जायते । १.२६
गाण्डोव॑ स्र सते हस्तात््वक्चेव परिदह्मते ।
न च दवन।स्यवस्थातु भ्रमतीव च मे मन: 1 १.३०
ह कुन्ती पुत्र श्रजुंन, श्रवस्थित उन सभी वन्धुझ्नों को देख परम करुणा के
भाव से श्राविष्ट होकर विपाइयुक्त हुमा वोला--हें कृष्ण ! युद्ध की इच्छा वाल
समुपस्यित स्वजनों को देखकर मेरा शरीर शिथिल हो रहा है। मुख सूख रहा
है, शरीर में कम्प हो रहा है तथा रोमान्च हो श्राता है। हाथ से गाण्डीव
खिसक रहा है, त्वचा जल रही है, मैं खड़े रहने में भी समय नहीं हूँ, मेरा मन घूम
रहा है ।
इसमें कोई प्रश्न नहीं; विपाद के विभिन्न भाव-श्रनुभाव एवं संचारियों का
ही विवरण यहां प्रस्तुत हुमा है । मानो मनोविज्ञान के ज्ञात्ता वेदव्यास ने विपाद-
शास्त्र प्रस्तुत किया हो । विपाद भाव के श्राठ श्रद्ध प्रदर्शित हुए है--(१) देह
शिथिल होना (२) मुख सूखना (३) शरीर में कम्पन होना (४) रोमाज्च होना
(५) हाथ से गाण्डीव छुटना (६) त्वचा में जलन होना (७) खड़े रह पाने की
स्थिति न होना तथा (८) मन का स्रमित होना |
(२) क्षोभ जनित विरक्ति--
निमित्तानि च पर्यामि विपरीतानि केदाव ।
न च श्र योनुपद्यामि हृत्वा स्वजनमाहूवे । १-३१
तन काडक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
कि नो राज्येन गोविन्द कि भोगैर्जीवितेन वा । १-३२
हे केशव 1 मैं स्वजन की हत्या में कोई श्रेय नहीं देखता हूँ । निमित्तों को
भी विपरीत देखता हूँ । हे कृप्णा 1! न मैं विजय चाहता हूँ श्रौर न राज्य सुख ।
हे गोविन्द ! हमें राज्य से क्या है भ्ौर भोग व जीवित रहने से भी कया है ।
येपामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च 1
त इमे5्वस्थिता युद्ध प्राणांस्ट्यक्त्वा घनानि च । १.३३
तप कि
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