आज़ाद कथा भाग 1 | Aazad Katha Bhag 1
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13.45 MB
कुल पष्ठ :
264
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)16 / भाज़ाद-कथा
जवाब--इनसे पुष्िए कि यह मिट्टी के ही पुतले हैं या नहीं ? इनकी खोपड़ी
मिट्टी की बनी है या रवड़ की ? फिर सिट्टी का ढेला लगा, तो सिर क्यों भनता गया ?
तमाशाइयों ने गुल मचाया--सुभान अल्लाह ! वाह मियां आज़ाद ! क्या मुंहू-
तोड़ जवाब दिया है । हद
(3) जो करता है खुदा करता है| १...
जवाब--फिर ढेले मारने का इलज़ाम हम पर क्यों है ? पा
चारों तरफ़ टोपियां उछलने लगीं--वाह मेरे शेर ! वया कहना है ! कहिएं, अव
तो आप खुदा के कायल हुए, या अब भो कुछ मीनमेख है ? लाख बातों की एक बात यह
है कि जब आपका सिर मिट्टी का है गौर मिट्टी ही का ढेला मारा, तब आपकी खोपड़ी
क्यों भन्नायी ? मियां मुकिर बहुत झेंपे, समझ गये कि यहां शोहदों का जमघट है, चुपके
से अपने घर की राह ली । आज़ाद की और भी धाक बंधी। अब तक तो पहलवान
और फिकैत ही मशहूर थे, अब आलिस भी मशहूर हुए । नवाब ने पीठ ठोंकी--वाह,
क्यों न हो ! पहले तो मैं झल्लाया कि ढेलेबाज़ी कैसी; मगर फिर तो फड़क गया ।
मुसाहबों का यह वार भी खाली गया, तो फिर हंड़िया पकने लगी कि आज़ाद को
उखाड़ने की कोई दूसरी तदबीर् करनी चाहिए । अगर यह यहां जम गया, तो हम सभी
को निकलवा कर छोड़ेगा । यह राय हुई कि नवाव साहब से कहां जाय, हुजूर आजाद को
हुवम दें कि बटेरों को मुदियायें, बटेरों को लड़ायें 1 फिर देखें, बचा क्या करते हैं । वगलें
न झांकने लगें तो सही । यह हुनर ही दूसरा है।
आपस में यह सलाह कर एक दिन मियां क़माली बोले--हुजूर, अगर मियां
आज़ाद बटेर लड़ायें, तो सारे शहर में हुजूर की धूम हो जाय । -
नवाब--क्यों मियां भाज़ाद, कभी बटेर भी लड़ाये हैं ?
झम्मन--आज हमारी सरकार में जितने बटेर हैं, उतने तो मटियाबुर्ज़ के
चिड़ियाखाने में भी न होंगे । एक-एक बटेर हज़ार-हज़ार की खरीद का, नोकदम के
बनाने में तोड़े-के-तोड़े उड़ गये, सेरों मोती तो पीसकर मैंने अपने हाथों खिला दिये हैं,
कुछ दिनों रोज़ खरल चलता था । मगर आप भी कहेंगे कि हम आदमी हैं ! इस ड्योढ़ी
पर इतने दिनों से हो, अब तक वटेरख्ाना भी न देखा ? लो आओ, चलो तुमको सैर
करायें ।
यह कहकर आजाद को बटेरखाने ले गये । मियां आजाद क्या देखते हैं कि चारों
तरफ़ काबुकं ही कावु्कें नज़र आती हैं, और काबुकें भी कैसी, हाथीदांत की तीलियां,
उन पर गंगाजमुनी कलस, कारचोबी छतें, कामदार मखमली गिलाफ़', रंग-बिरंगे सोने-
चांदी की नन्हीं-नन्हीं कटोरियां, जिनमें बटेर अपनी प्यारी-प्यारी चोंचों से पानी पियें,
पांच-पांच छह-छह सौ लागत की काबुकें थीं, खूंटियां भी रंग-विरंगी । दुन्नी मियां एक-
काबुक उतारकर बटेर की तारीफ़ करने लगे, तो पुल बांध दिये । एक बटेर को दिखाकर
कहा--अल्लाह रखें, क्या मझ्नोला जानवर है ! सफ़ेशिकन (दलसंहार) 'जो आपने सुना
हो, तो यही है । लंदन तक ख़बर के क़ाग्रज़ में इनका नाम छप गया । मेरी जान की कसम,
जरा इसकी आनबान तो देखिएगा । हाय, क्या बांका बटेर है! यह नवाब साहब के
दादाजान के वक्त का है। ऐसे रईस पैदा कहां होते हैं । दम के दम में लाखों फूंक दिये,
रुपये को ठीकरा समझ लिया । पतंगबाज़ी का शौक़ हुआ, तो शहर भर के पतंगवाज़ों को
निहाल कर दिया, कनकौवेवाले बन गये । अजी, भौर तो और, लौंडे, जो गली-कूचों में
लंगर और लगे ले-लेकर डोर लूटा करते हैं रोज़ डोर वेच-वेचकर चखौतियां करते थे ।
अफ़ीम का शौक़ हुआ, तो इतनी खरीदी कि टके सेर से सोलह रुपये सेर तक बिकने
लगी । मालवा खाली, चीन खुबखल, बंबई तक के गन्ने आते थे ।
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