पालि भाषा और साहित्य | Pali Bhasha Aur Sahitiya
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16.16 MB
कुल पष्ठ :
499
श्रेणी :
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No Information available about डॉ. इन्द्र चंद्र शास्त्री - Dr. Indra Chandra Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रेड
लेवि (5फ1४810 1.6४) ने इसे सिद्ध करने का प्रयास किया है । उन्होंने *एकोदि',
'संघादिसेस' भादि अनेक पारिभापिक शब्द प्रस्तुत किए हैं जिनमें अघोष ($ण70)'
वर्णो के स्थान पर घोप (50780) वर्णों का प्रयोग किया गया है । इन रूपों से उन्होंने
यह निष्कर्ष निकाला है कि आगमों की द्योतक भाषा से भी पहले एक ऐसी भाषा
विद्यमान थी जिसमें स्व रमध्यग अघोष (ए/टा४०08210८ 5पावं5) निरावाद रूप से
कोमल वर्णों के रूप थे । पर मुझे लेवि की युक्तियाँ जेंच नहीं रहीं । एक तो इस कारण
कि लेवि द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्तियाँ निर्णीत नहीं हैं, और दूसरे इस कारण कि भधघोष
(5ण105) वंगों का कोमल हो जाना केवल पारिभाषिक शब्दों में नहीं होता अपितु
अन्य भी अनेकानेक दाब्दों में होता है ।* इसके अतिरिक्त, मेरी सम्मति में, इस ध्वति-
संबंधी तत्त्व से कोई विशेष निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता, क्योंकि ये रूप विभाषा-
गत उन विविध विशेषताओं में से मात्र एक विशेषता का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कि
पालि में पाई जाती हैं। इस प्रकार, उदाहरणा्थ, हमें ऐसे प्रयोग भी समानरूपेण
अधिकता के साथ मिलते हैं जिनमें उपर्युक्त ध्वनि-संबंधी तत्त्व के विपरीत घोष
(5०४४०६) वर्ण (कोमल से होकर) कठोर हो गए हैं, तथा अन्य भी अनेक विशेषताएं
मिलती हैं, भर इन सब पर यदि समग्रत: विचार करें तो इससे यह सिद्ध होगा किः
पालि विदिघ रूपों वाली भाषा है ।
10, यदि पालि को बुद्ध द्वारा प्रयुक्त मागधी का रूप माता जाए तो पालि-
आममों को “बुद्धवचनम्' का सर्वाधिक प्रामाणिक रूप मान सकते हैं, यद्यपि महात्मा
बुद्ध के उपदेश प्रारंभ से ही भारत के विभिन्न भू-खंडों की अपनी-अपनी देशीय विभा-
षाओं में प्रचारित किए जाते होंगे । यह निष्कष, जो कि चुस्लवंग्ग 5.33.1 विनय
पिटक 2.139 से निकाला गया है, मेरी सम्मति में ग़लत है। यह वर्णित किया
गया है कि दो भिक्षुओं ने महात्मा बुद्ध से यह दिकायत की कि संघ के सदस्य
अलग-अलग स्थानों के हैं और वे बुद्ध के उपदेशों को अपनी-अपनी भाषा (सकाय निरु--
त्तिया) में ढाल देते हैं । अत: उन्होंने यह सुभाव दिया कि बुद्ध के वचन संस्कृत-पद्यों
में अनूदित किए जाएं। कितु बुद्ध ने उनकी इस प्राध॑ना को अस्वीकार करते हुए कहा
*अनुजानामि. मिक्खवे सकाय निरुत्तिया बुद्धबचनं परियापुणितुस् ।” रह्मसू डेविड्स
(िफाह्5 8५105) तथा ओल्डनबगं (01660७6्)% ने इस कथन का अनुवाद इस
न बठणातथों सैजघपिपुण&, 5६1, 10, . उठ, 0. 495 पी.
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