मानव और धर्म | Manav Aur Dharm

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Manav Aur Dharm by डॉ. इन्द्र चंद्र शास्त्री - Dr. Indra Chandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| ‡ २; समस्यायो सा वर्मीकरण्‌ सुखपूर्वक जीने की इच्छा ने जिन समस्यामो एव सधर्षो को जन्म दिया, उन्हे अनेके प्रकार से उपस्थित किया जाता है । व्यक्ति, लक्ष्य तथा प्रयत की दृष्टि से उसके अनेक सूप है । व्यवितमूरके वर्गीकरण जहा तकं व्यक्ति का प्रन है उन्हे तीन भागो मे विभक्त किया जा सकता है १ स्वकृत, २ परकृत, तथा ३ प्रकृति-कृत । प्रथम वर्ग में वे समस्याएं आती है, जिनका उत्तरदायित्व स्वय व्यक्ति पर है और जो किसी बाह्य आघार पर्‌ अवेकम्बित नही ह । उदाहूरणस्वरूप, एकं व्यवित्त अधिक या अस्वास्थ्यकर्‌ भोजन के कारण बीमार पड जाता है, तो उसका उत्तर- दायित्व स्वय उसपर है। इसी प्रकार अनुचित रहन-सहन, काम-कोघ आदि वासनाओ के चशीभूत होना, उच्छुद्धल जीवन, आालस्य, विवेकह्दीनता, अतुशासनहीनता आदि के कारण जो कप्ट उठाने पड़ते है, उनके छिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है । दूसरा वर्ग उन समस्याओं का हैं जो परस्पर-व्यवहार के कारण उपस्थित होती हैं । चोरी, डरकती, हिसक आक्रमण, आर्थिक शोषण, कठोर नियन्त्रण आदि से उत्पन्न होनेवाले कष्ट इस कोटि में आते हैं। मनुष्य अपने मन मे स्व' और 'पर' का कृत्रिम भेद खड़ा कर लेता है और वह स्व-वर्ग को परवर्गं के प्रति अन्याय या अत्रुतापूर्ण व्यवहार के छिए उचसाता रहता है।




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