राजस्थानी - हिंदी शब्द कोश खंड 1 | Rajasthani Sabdha Kosh Khand 1

Rajasthani Sabdha Kosh Khand 1  by बदरीप्रसाद साकरिया - Badri Prasad Sakaria

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( जो डॉ० तैस्सितौरी ने नागर श्रपश्न श श्रौर डिंग तथा गुजराती के वीच में पुरानी पश्चिमी राजस्थानी (जूनी गुजराती) को माना है, जिसे सारे गुजराती विद्वाद्‌ सहपे स्वीकार करते हैं तथा इसी से प्राघुनिक गुजराती शरीर श्राधुनिक राजस्थानी का उदृभव हुग्रा है । इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी का कोई सीधा सम्बन्ध राजस्थानी से नहीं है । राजस्थान में प्रयुक्त डिगढ श्रौर पिंगठ़ भाषाश्रों के सम्बन्ध में भी थोड़ा विचार करने की श्रावश्यकता है । पिंगढछ के भापाकीय स्वरूप को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में यह एक शैली विशेष श्रौर तत्पश्चातु एक स्वतन्त्र भाषा के रूप में निखरी होगी । कुछ भी हो, श्राज ये दोनों पुथक शैलियाँ न होकर स्वतन्त्र भाषायें हैं। डिगठ निश्चय ही पिंगढ से प्राचीन है, ग्रतएव डिंगल के श्रनुरकरण पर नामाभिधान होना सुसंगत लगता है । डॉ० हजारी प्रसाद ट्रिवेदी श्रार श्रनेक देशी तथा विदेशी ब्रिद्वानों का यही मत है । वास्तव में ब्रज मिश्चित राजस्थानी से उत्पन्न एक नई भाषा का नाम पिंगछ पड़ा । वैसे कृष्ण भक्ति के कारण राजस्थान ब्रज भाषा का भी प्र सी रहा है। त्रजभाषा के श्रनेक प्रसिद्ध श्रौर थे प्ठ कवि राजस्थान के भी रहे हैं । राजस्थानी का प्राचीन नाम मरुभाषपा है। भारतीय भाषा भगिनियों में अति प्राचीन ग्रौर समृद्ध मरभाषा का उद्गम वि० सं० ८३४५ से भी बहुत पूर्वे का है । वि० सं० ८३५ में भूतपूर्व मारवाड़ राज्यान्तर्गत जालोर नगर में मुनि उद्योतन सुरि रचित कुबलयमाला में वशित १८ भाषाओं में मर भाषा का उल्लेख इस वात का पुष्ट प्रमाण है कि इस भाषा का साहित्य इससे भी पुर्वे का रहा है-- 'म्प्पा-तुप्पा' सिरे ग्रह पेच्छड मारुग्रे तततो 'त उरे भल्लउ' भणिरे ग्रह पेच्छड गुज्जरे श्रवरे 'ग्रम्ह काउं तुम्ह' भणिरे भ्रह पेच्छइ लाडे भाइ य इ भइसी तुन्भे भणिरे भ्रह मालवे दिट्टे (कुवलयमाला) इसका प्राणवान व सशक्त वीर रसीय साहित्य कालानुसार श्रतिशयोक्ति- पूर्ण होते हुये भी वेजोड़ तथा भारतीय साहित्य की एक भ्रसुल्य धरोहर है, जिसे राजस्थान वासियों ने श्रपने रक्तदान से सींचित व्‌ पल्लवित किया था ) विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टेगौर तो इस काव्य के कुछ श्रोजस्वी अ्रंशों को सुनकर इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने मुक्तकंठ से इसकी शुरि भुरि प्रशंसा की । श्रनेक सम्प्रदायों (रामसनेही, जसेनाथी, विश्नोई श्रादि) के प्रवर्त क सिद्ध-महात्मा श्ौर मीरां, पृथ्वीराज रसप्लाबित धारा ने इस प्रदेश को ही नहीं, देश के सम / दादूपंथ, मिरंजनी श्रादि शताधिक भक्तों की चे भक्तिकाल को सविशेष




User Reviews

  • rakesh jain

    at 2020-12-08 12:43:48
    Rated : 8 out of 10 stars.
    THE CATEGORY OF THIS BOOK MAY BE REFERENCE BOOKS, EDUCATIONAL/OTHERS, LANGUAGE/RAJASTHANI. ONE MORE CATEGORY HEAD SHOULD BE OPENED IN NAME OF DICTIONARIES. UNDER THIS HEAD SUB HEADS SHOULD BE OPENED LIKE - HINDI, SANSKRIT, MARATHI, GUJRATHI AND OTHERS. THIS BOOK MAY ALSO BE PLACED UNDER DICTIONARIES/RAJASTHANI.
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